उन्मनी वाङमय

१ जुलै १९३९

१ जुलै:

एकूण श्लोक: ५

 

रात्रौ १०.१५

 

‘रं’ ‘हं’ ‘शं’ ‘क’ इति चतुष्कल श्रीविभूतिकाय।

जेथ शबल संचितांचे हिमालय रेणुप्राय।

अनारब्धांचे कोटिकर्म-निकाय

प्रारब्धती, क्रियमाणती।। ।।१।।    

 

फुलाफुलांतिल उत्थानले केसर।

मोत्या मोत्यांतिल उचंबळलें तेजोनीर।

समुद्री समुद्रींचें फेसाळलें नीलक्षीर।

विभूतिकाय हा श्रीमत्स्यस्पृष्ट!।। ।।२।।    

 

चर्यानंदल्या ‘नाथस्वं’ ची पूर्णाहुती।

मूळबीजांची फुलफळलेली व्याकृती।

जीव-तान्हुल्यांची कैलासलेली अवधूतसंस्कृती।

विभूतिकायांत डोळवा!।। ।।३।।    

 

कामगिरी, पूर्णगिरी हें प्राथमिक पीठ द्वय।

जालंधर, ओड्ड्यणं द्वंद्व हें द्वितीय।

चतुष्कोणाचें या मध्यकेंद्र भव्य।

‘विभूतिकाय’ हें रहस्य-लिंग!  ।।          ।।४।।    

 

शुक्लाध्यस्तल्या वृत्तिदेवीचें गर्भागार।

श्यामरंगल्या सावित्रीचा सहजाविष्कार।

शिवस्व-भानांचा कोसळला धुवाधार।

प्रतिपच्चैतन्य पौर्णिमलें!।।                 ।।५।।

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