उन्मनी वाङमय

५ जुलै १९३९

५ जुलै:

एकूण श्लोक: ११

 

दृते दृह मा मितस्य मा चक्षुषा

सर्वाणि भूतानि समीक्ष्यंताम्।

मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि

समीक्ष्ये। मित्रस्य चक्षुषा समीक्षाम  हे।

ओम शंति: । शांति:। शांति:। शांति:

ओम वृष्टि स्तुष्टि:। वृष्टि स्तुष्टि:।          

 

संध्याकाळी ४.२०

 

दृते दृह मा मितस्य मा।

सर्वाणि भूतानि समीक्ष्यंताम्।

ज्योक्ते संदृशि जीवास्यं। 

ज्योक्ते संदृशि जीवास्यं । 

ज्योक्ते संदृशि जीवास्यं।

 

संध्याकाळी ४.३७

 

नेत्रोत्सव कीं सन्मुखला आपेआप।

संकोचला जणुं श्रीवैभवाचा विभुव्याप।

प्रत्यंचेंत प्ररुढला कुशलित श्रीशिवचाप।

‘श्रीकाय’ दर्शन हें!        ।।१।।    

 

‘गं’ ‘णं’ ‘शं’ ‘यं’ चें मूलाधार भान।

बीज सरस्वतीचें सालंकृत संध्यान।

सोहं हंसाचें क्षीरधारत्मक अर्ध्यप्रदान।

श्री काय सुकौतुक हें ।।          ।।२।।    

 

सूर्यचंद्र सूर्यचंद्राचें अनुक्रम भेदन।

इडा सुषुम्नेचें निमिषमात्र पिंगलीकरण।

मणिपूर अनाहताचें सहस्रारीं संस्थापन।

आद्य ‘श्री’ कार काय हा!  ।।        ।।३।।    

 

श्री गुं गुरवे शतश: प्रणाम।

ऱ्ही, ऱ्हीं, क्लींचे समन्वित धाम।

निवृत्तिगार्हस्थ्याचें सदेहलें रुपनाम।

श्रीकाय विलास हा!  ।।              ।।४।।    

 

श्रीकाय संतापलेला मार्तंण्ड।

श्रीकाय विश्वग्रासक संवर्त प्रचंड।

श्रीकाय पुन:सृजनात्मक ‘श्री शं’ कार उदंड।

विकार हा ‘श्री’कारजन्य ।।            ।।५।।    

 

चक्षुर्मात्र श्रीकायाचें स्वरूप।

ध्येय येथलें निष्प्रतीकलेला श्यामस्तूप।

स्थान  याचें दहराकाशिंचा कूटस्थ कूप।

‘शं’ ‘रं’ ‘हं’ चें त्रिकूट बिल्व।।            ।।६।।    

 

येथ निर्मूर्तलें हृषीक दश ।

येथ प्रस्फुटले तयांचे सहजेश।

लेउनी सूक्ष्माश्रेणींचा वाग्वेष।

उदो - उदोवीत संविध्रीला!  ।।            ।।७।।    

 

शुक्ल हंस हे श्रीकायाचे संवाहक।

जीवाश्रुमार्जन, हें श्रीकायाचा गृहमख।

पतित पातितांचा चिरंसेवक।

स्वयें न दिसतां, देखविणारा!।।                ।।८।।    

 

‘महत्काय’ याचें सांप्रदाय कुलनाम।

महाकारण मात्र श्रीकायाचा इंद्रियग्राम।

चर्या याची गार्हस्थ्य निष्काम।

निर्वर्णलेला न्यासाश्रम जो!।।                ।।९।।    

 

‘वषट्’ कार हा महत्काय आशी!।

‘शं’कार हा तेज:श्यामांचा नक्षत्रराशी।

‘महत’ कार हा श्री - श्री - श्री सर्वंकुशलकर्षी।

स्वस्ति! शं नो श्री महत् काय!।।            ।।१०।।    

 

सुवर्णतंतूंचें महावस्त्र विणिलें।

महदस्तित्वानें शून्यास संक्षेपिले।

शून्य महत् कुशींत लेंकरूं जें जन्मलें।

त्या नांव ‘वियत्काय।’ ।।          ।।११।।

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