उन्मनी वाङमय

८ जुलै १९३९

८ जुलै

एकूण श्लोक: ३ 

 

श्रीकायांत ओळखावी सुषमा।

सजातीय समनस्कांचा प्रकट भूमा।

जेथ समन्वयल्या प्रवृत्ती विषमा।

श्रीतत्त्वाच्या कल्पन योगें।। ।। १ ।।    

 

श्रीतत्त्वाचा श्रियाळ निक्षेप।

र्‍हीं सत्त्याचें प्रियाळ प्रतीक।

शं बीजाचा वेल्हाळ वैराजक।

प्रफुल्लाकारले वियत्कायकोशीं।। ।। २ ।।    

 

‘श्रीश्च’ते लक्ष्मीश्च पल्यावहो रात्रे पार्श्वे नक्षत्राणी रूपम्।

अश्विनौ व्यात्तम्।

वियत्कायांत विरोध एकवटले। 

वियत्कायांत चित्त प्रत्यय वस्त्वाकारले।

वियत्कायांत नाथहेतू श्रीकूटस्थले।

स्वाराज्य वैराजलें स्वभावत:।। ।।  ३  ।।    

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