उन्मनी वाङमय

९ जुलै १९३९

९ जुलै

एकूण श्लोक: ५

 

‘इच्छन् ईशानामुं मं ईशान

सर्व लोकं म ईशान।’    

 

अनुपलब्धीचें स्वत:प्रामाण्य।

संज्ञानाचें ‘शं भान वदान्य।

अद्वैताचें अधिकरण सामान्य।

कौस्तुभरत्न हें वियत्काय।।   ।। १ ।।    

 

अनुपलब्घी येथले प्रातीतिक ।

शून्यस्व येथला सुवर्ण पर्यंक।

तनुलोक हा नि:संख्यलेला पूर्णांक।

संविद् दृशा डोळवूं   ।।              ।।२।।    

 

उपलब्धि म्हणजे भेदग्रहांचे व्यक्तरूप ।

फुलविलेला कीं निजस्वकोश आपेआप।

कैवल्याचा निष्कल निरालंब स्तूप।

प्रतिबिंबला वियत्काय कूपीं! ।।        ।।३।।    

 

केसर कीं स्वत: पुन:पुष्पला।

दर्पणपृष्ट की स्वयमेव नेत्राकारला।

अध:शाख अश्वत्थ ऊर्ध्वमुखला।

वियत्कायाचें जलडोहीं!।।                ।।४।।    

 

आज्ञाचक्रींच्या द्विदल गर्भांत।

सहस्रारींच्या एकाग्र दर्भांत।

कोटिसूर्यवली श्रीसवित्प्रभात।

सर्वोपलब्धि सन्मुखली!  ।।              ।।५।।

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