उन्मनी वाङमय

२६ सप्टेंबर १९३८

२६ सप्टेंबर: 

एकूण २६ श्लोक

 

नेत्रतेज ऊर्ध्वमुखवा।

स्वस्तिकराज तेथ नेत्रवा।

आणि भोगा श्रीविभवा।

आद्य तत्त्व हें  ।। ।।१।।

 

नेत्र किरणांचे शुक्लरंजन।

वीस एकमासीं घेईल हिरवेपण।

तेव्हां स्थूलतत्त्वाचें दीधीतन।

अनुभवा येईल   ।। ।।२।।

 

विश्वांत विखुरलेले किरणमणीं।

गुंफले जातील आंतर ऊर्ध्वनयनीं।

स्थिरावेल ‘शं’ नाम ध्यानीं।

श्रीस्वस्तिका!  ।। ।।३।।

 

बिंबेल हिरव्या ध्यानगाभ्यांत।

स्वस्तिवाचनाचे चंद्रबिंब साक्षात्।

मौलिधारण तयाचें आदिनाथ ।

करितील किरणकरें  ।। ।।४।।

 

वृत्ति जान्हवीचा उद्वृत्तप्रवाह।

प्रकाशांगुलिचा अदृष्टतेजोभाव।

मणिपूरस्थाचा परिपूर्णला स्वभाव।

तेथ ललिता दर्शन  ।। ।।५।।

 

जयजय ललिते नाथिते।

दिसलीस ऊर्ध्ववता दृष्टितत्व।

चिंतनांत व्यतीतली संवत्सरसप्तें

प्रथम द्वितीय तृतीय    ।। ।।६।।

 

गुह्यविद्येचें कालपरिमाण।

अमूर्ताचें व्यक्तांत अंकन।

मृत्यूचें अमृतत्त्वांत कुशलन।

श्रीविद्येची ही त्रिपुटी   ।। ।।७।।

 

काल आमुचा त्रिपादहस्तक।

भैरव्य आमुचें मौलिमस्तक।

योगतमिस्त्रा प्रकाशलेख।

श्रीभूपांचे हें रहस्यधाम  ।। ।।८।।

 

स्वस्तिकाकृतीची ललिता।

अष्टधा प्रकाशली समंतत:।

मध्य कौस्तुभ विलोकितां।

श्रीविद्येचा मध्योत्कर्ष  ।। ।।९।।

 

त्यापुढे अंतराकाशींची आकाशगंगा।

कौतुकें ल्याली यामुन्यरंगा।

तेथ शीर्षली वीचि उत्तुंगा।

श्रीसुंदरी आरूढली!  ।। ।।१०।।

 

लोकेश्वरांचे हंसजीव।

पंखविती विश्वाची शींव।

अनुभवांत स्वादविती नीलग्रीव।

प्रणिप्रातती श्रीसत्तेला   ।। ।।११।।

 

कारणतत्त्वांचीं मौक्तिके।

महत्तविती हंसेश्वर कौतुकें।

आणि तेथ प्रभास्मित फाके।

श्रीसुंदरीचे  ।। ।।१२।।

 

स्मिताचा त्या नीलप्रलय।

चितीतत्त्वाचा मूर्तला विजय।

जेथ साक्षित्त्वलें एक समयें उभय।

साक्षिभास्य आणि साक्षिभासन  ।। ।।१३।।

 

साक्षित्त्वाच्या पराश्रेणीवरी।

विद्युतली श्री-श्री-श्रीसुंदरी।

कृपा आलोकाच्या पंखावरी।

उभवी श्रीसंप्रदाय  ।। ।।१४।।

 

संचितांचे नदसहस्र।

आटविण्यास एकक्षणार्ध।

कर्मोपाधींचें कोटिबंध।

उद्ध्वस्तती निमिषैकीं!   ।। ।।१५।।

 

कर्मलेपांत लोपले जीव।

तरि अतद्धर्मत्व आत्मस्वभाव।

व्यर्थ व्यर्थ त्रिमार्गभाव।

कर्मभक्ति संन्यास!   ।। ।।१६।।

 

श्रीविद्या निष्कर्मवी प्रारब्धक्रियमाण।

श्रीविद्या सहज सामविते भक्तिभाजन।

श्रीविद्या सहज कलशविते न्यासज्ञान।

श्रीविद्या तुरीय सुंदरी  ।।          ।।१७।।

 

श्रीविद्या विद्यानुभूती।

श्रीविद्या श्रुतिसरस्वती।

श्रीविद्या मंत्रसंगती।

सप्त् व्याहृतींची   ।।         ।।१८।।

 

स्वस्तिकरूपाचें स्वस्तिध्यान।

श्रीविद्येचा प्रथम चरण।

श्रीसद्गुरूचें देहपूजन।

येथलें तंत्र   ।।         ।।१९।।

 

अनुविंधन, कारणदेहाचें।

नाथन उग्र, स्थूलसूक्ष्मांचें।

भासन, स्वस्ति कुशलाचें।

द्वितीय पादीं   ।।        ।।२०।।

 

मृति मानल्या मृत्तिकेस।

स्मृति ध्यानल्या वस्तुप्रतीतीस।

चिति श्रीविद्यला आत्मतत्त्वास।

श्री-अमृतानुभव हा!   ।। ।।२१।।

 

कालभैरवाचें त्रिपद उड्डाण।

देहभावाचे त्रिपद भान।

साधनेचे त्रिपददर्शन।

या नांव ‘ज्ञानैश्वर्य’  ।। ।।२२।।

 

श्री प्रज्ञेचीं ओघळलीं ज्ञानें।

श्रीसरस्वतीचीं भरारलीं गायनें।

श्रीश्रुतीचीं व्यक्तावलीं दर्शने।

जयश्रिये! ज्ञानेश्वरी!  ।। ।।२३।।

 

ज्ञानेश्वर्य गिर्नारले!।

निवृत्तितत्त्व महेशलें।

मत्स्य-गीत बासरलें।

अमृतानुभव श्रीविद्या!  ।। ।।२४।।

 

श्रींत जीव जाहला विहंग।

तयाचा सुकल व्योममार्ग।

श्रीयामुन्यांतला चलत् तरंग।

महाभाग तूं आश्रित  ।। ।।२५।।

 

स्वस्तिवाचन। तुम्हां आश्रितां।

मार्गलेल्या महनीय महंता ।

श्रीशरणलेल्या शरणांगता।

अभयवर! श्रीविद्या!  ।। ।।२६।।

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