उन्मनी वाङमय

१६ ऑक्टोबर १९३८

एकूण श्लोक:१३

 

रात्रौ १०.१३

 

सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र्य।

दिगंबर विद्येंतील तत्त्व त्रय।

‘श्रद्धान’ हें संयुक्त रहस्य।

दिगंबर वृत्तीचे  ।। ।।१।।

   

श्रद्धान निसर्गज, अवगमज।

दिगंबर संचाराचें गूज।

जणुं प्रेममुद्रेचें प्रतीक अव्याज।

श्रद्धानावस्था   ।। ।।२।।

   

विज्ञेय भोग्य तो ‘अणु’।

अविज्ञेय अभोग्य तो ‘स्कंधु’।।

उभयतः आकृत पुद्गलसिंधु।

‘पुद्गल’ म्हणजे जड प्रकृति  ।।    ।।३।।

   

‘आश्रव’ येथिला महाशब्द।

आश्रव म्हणजे पुद्गल कर्मबंध।

द्वितीय महाशब्द ‘संवर’ कबंध।

संवर म्हणजे शृंखला भेद  ।।       ।।४।।

   

कर्म गुहेचें आवृत्त द्वार।

पुद्गल निशेचा आविष्कार।

निर्जर हा प्रतिविकार।

आश्रवाचा   ।। ।।५।।

   

रात्रौ १०.३७

 

‘स्याद भाव’ ‘नस्याद भाव’।

आणि तैसा ‘स्याद’ वा न स्याद् भाव।

अस्तिस्याद् अनिर्वचनीय।

‘अस्तिनास्तिस्याद्’ अनिर्वचनीय।     ।।६।।

   

ऒम स्वस्ति दिगंबर भान।

स्यादभाव माझी ज्ञानमुद्रा।

प्रमौदा आणि अनैकांतिकदा।

संज्ञान उत्कला ही संवित् - प्रदा।

‘स्याद्वाद’ हें महाज्ञापन   ।।        ।।७।।

   

पदवृत्ति आणि पदार्थवृत्ति।

वंचक त्याची प्रतिज्ञान प्रतीति।

पदार्थता आणि ‘अस्ति’ता यांच्या आकृति।

स्वाश्रय दोष दुष्ट  ।। ।।८।।

   

पदार्थ न सिद्धवी ‘अस्मि’तेसी।

विशुद्ध अस्तिता न जन्मवी पदार्थासी।

‘पदार्थोsस्ति’ या संवेदनेसी।

मिथ्या दर्शन बीज हेतु   ।। ।।९।। रात्रौ १०.५२

   

‘स्याद’ वृत्तींत श्री दिगंबर स्वस्ति भाव।

अनिश्चित तटस्थ दृशा व्यक्तवी स्वरुपार्विर्भाव।

पद्मपत्रीं सलिल बिंदूस न ठाव।

डुले अक्लिन्नस्वभावीं   ।।        ।।१०।।

   

अक्लिन्नता ही दिगंबर प्रकृती।

कर्पूर पीठ तिचें श्रीपंचसमिती।

श्रीदिगंबरांची अतिदिक् निरंबर गति।

निमिषस्पर्श हा संविद् लेखेचा ।।      ।।११।।

   

चाल ती दिगंबर शीर्षासनीं।

डोलती श्रीसरस्वती साभिप्राय मौनी।

बोलती नवनाथ ब्रह्मोष्ठांनी।

दिगंबर विद्या ही!  ।। ।।१२।। रात्रौ ११.०७

   

चाखा रुचि, विसरा फलजाति।

हुंगा सौरभ, न दिसो पुष्पमूर्ति।

प्रगतवा जीवन, न मोजा चक्रगति।

अव्यक्तिक ‘श्रीस्वस्ति दिगंबर दृक् ।। ।।१३।। रात्रौ ११.१५

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