उन्मनी वाङमय

१५ ऑक्टोबर १९३८

१५ऑक्टोबर:

एकूण श्लोक:४१

सकाळी ११.३०

 

आज प्रकटवूं वैश्वानर विद्या।

दीधीतन प्रक्रियेची भूमिका जी आद्या।

बीजाक्षरी जी प्रतिपाद्या।

लौकिक शब्द स्थूलज्ञापक  ।। ।।१।।

   

नाभि हृदय कूर्म क्षेत्र।

भ्रूमध्य आणि सहस्रार छत्र।

वैश्वानराचीं बीजकेंद्रे पवित्र।

पंचपात्रलीं पंचस्थलीं   ।। ।।२।।

   

संवित् - स्फुल्लिंग प्रकाशांगुलि मार्गें।

महाकारणांतुनि स्थूलांगुलींत तरंगे।

तेथुनि अन्यक्षेत्रस्थ पंचबिंदुसंगें।

प्रतिप्रकाशें जडदर्पणी  ।। ।।३।।

   

कोटियुगींचे कोटि सहस्र वैश्वानर।

अनंत दिक्कालीं विखुरले चौफेर।

तदैव अंशतया आत्मविती संवित्क्षीर।

बिंदुमात्र तेजोरज  ।। ।।४।।

   

दुपारी १२.०४

 

‘रयि’ हे ‘अनशन’ प्रतीक।

घन जड प्रकृति तत्त्वाचें प्रापक।

मूलचितिचा वामावलोक।

वैश्वानराचें मख स्थंडिल  ।। ।।५।।

   

‘साशन’ हें सूक्ष्मप्रकृति स्वरूप।

तेथ ‘अस्मि’ भावाचा प्रथम संपर्क।

कीं शिला श्रेणीचा अहिल्या उ:शाप।

प्रवर्तला  ।। ।।६।।

   

आजचें सजड, कालचें अतिचेतन।

महाविकासक्रम हा चक्र संवर्तन।

जडाचे पुनश्चेतवण।

क्रमोत्कर्ष ।। ।।७।।

   

साशन, अनशन यांचा संधिप्रकाश।

वैश्वानर-तत्त्वाचा प्रथम विलास।

साशनश्रेणी जणुं दर्पणाभास।

वैश्वानर विकासाचा   ।। ।।८।।

   

वैश्वानराचें तेज प्रशीतळ।

न पोळवी वा भस्मवी  येथिंचा जाळ।

जणुं कीं सुधाचंद्रिकेचा कल्लोळ।

वैश्वानर दीप्ती ।। ।।९।।

   

प्रखरतेविण भास्वरता।

अहंभानेवीण सत्ता।

मालकीवीण मत्ता।

वैश्वानर तत्त्व हें  ।। ।।१०।।

 

मृत्तिकेंत उदेलें भानुबिंब।

प्रेतांत संभवलेला अमृतगर्भ।

जड शब्दार्थांचा पार्श्व संदर्भ।

वैश्वानर उदित बोध ।। ।।११।।

   

नाभिबिंदूत ध्यानवा धूमावृत्त स्फुल्लिंग।

हृदयाकाशी होऊं द्या तो दुभंग।

कूर्म स्थलीं महांगुलिस्पर्शें पालटेल रंग।

चमकेल तो निष्कज्जल  ।। ।।१२।।

   

दुपारी १२.३५

 

वाम व्योम्नीं सांडलेली रक्षा।

सव्य कंठीं होईल प्रत्यक्षा।

तेथ अवंती कृपा कटाक्षा।

सहज आवाहन!   ।। ।।१३।।

   

दुपारी १२.३७

 

नंतरीं स्फुल्लिंग ज्योतिर्मयेल।

आंतर नासाग्रीं भ्रूमध्यांत संस्थलेल।

तेथ स्थिरांगुलिरूपें प्रवाहेल। 

धारा संतति, कीं गो रसाची  ।। ।।१४।।

   

दुपारी १२.३९

 

येथ क्षीरोदधि बिंदुमात्रला।

क्षीरश्रिया अंगुलि प्रकाश श्रीमंतला!।

 नाभिकुंडीचा वैश्वानर दुधीपौर्णिमला!।

सप्त्म श्रेणींत ज्ञानाच्या!   ।। ।।१५।।

   

वैश्वानराची प्रत्यक्ष गती।

पूर्णत: जाणिजेल महासंवित्तीं।

आमुच्या सुकृती सफलती।

क्षेत्र संपादन सिद्धता!  ।। ।।१६।।

   

दुपरी १२.५२

 

पंचकेंद्रांत उजरवूं जळमटलें संस्कार।

तेथ प्रतिष्ठापूं अनिरूक्त ‘हुं’कार।

मूलमंत्रे आव्हानू ‘श्रीशं’कार।

जय! श्री-हुतसाशन  ।। ।।१७।।

   

अनशनासि सांधवी साशन।

साशनासि विनियोगी देवयानीं।

अमानव पुरुषीं निजरूप शून्यवुनी।

वैश्वानर होतसे कृतार्थ   ।। ।।१८।।

   

दुपारी ०१.००

 

वैश्वानर विद्या ही गो प्रदान।

दिधलें कीं यथा यथा गोरक्षमंत्र विधान।

स्वयंमादेशिले जे महाचरण।

तत्-प्रतिशब्द हा!  ।। ।।१९।।

   

दुपारी ०१.०६

 

अष्टादश विद्येचा अष्टादशांश।

सुमुहूर्तीं व्युत्कमला तोडूनि क्रमपाश।

षोडश कलेचा संप्रकाश।

सप्त्म बिंबी प्रकटला!  ।। ।।२०।।

 

जयश्रिये! पिप्पलादप्रणवे।

कारणकुलिंच्या रणरंगार्णवे।

नमोsस्तु ते श्रीपुष्णवे! श्रीसंविद् भानवे।

अष्टादशविद्ये  नमोsस्तुते!  ।। ।।२१।।

   

रात्रौ ०९.१८

 

स्वस्तिश्रिये! सूत्रधारिणि।

स्वस्तिश्रिये! अंतर्यामिनि!।

स्वस्तिश्रिये! निरंशिनि!।

छायांश आम्ही तुझे  ।। ।।२२।।

   

पृथ्वी आप तेज अंतरिक्ष।

द्युः आदित्य आकाश दिक्।

वायु चंद्रतारक तमः प्रकाश।

द्वादश स्थूल ज्योतिर्लिंगे ।। ।।२३।।

   

या आधिदैविक स्थूल तत्त्वदेहीं।

सूत्र जें आंतर् अनुस्यूत राही।

प्राणतत्त्व तें जणुं अंतश्चेतवी।

‘रयि’देह सजड   ।। ।।२४।।

   

‘रयि’ देहाचीं द्वादशशकलें।

प्राणसूत्रवी तूं महाचित्कले!।

सूत्रविद्येंत तुझें प्रतिबिंबलें।

जणुं मालारूप  ।। ।।२५।।

   

रसलोक देवलोक श्रुतिलोक।

तेजोलोक मानवलोक अमानवलोक।

मंगलसूत्रले अव-मह  नवाsलोक।

सूत्रज्ञान रहस्यबीज ।। ।।२६।।

   

नेत्र श्रुति वाच्।

प्राण मन स्पर्श।

प्रज्ञापीठ आणि सुवर्णरेतांश।

अष्ट स्पर्श संज्ञापिले  ।। ।।२७।।

   

अष्टरेणूंत या रजलें अंतर्यामतत्त्व।

व्यष्टि देहांत प्रफुल्लतां उदान सामर्थ्य।

प्रकाशें अंतर्यामीचें महाभाष्य।

पश्यंती मुखीं   ।। ।।२८।।

   

प्राण-तेज ओतप्रोतलें ‘रयि’ देहांत।

अंतर्यामतत्त्व सुस्पष्टलें आध्यात्मिक अष्टकांत।

सूत्रांतर - उभय विद्यांचा एक अंत।

वैश्वानर विद्या  ।। ।।२९।।

   

दोन नेत्र हे संयुक्ततां।

ज्योतिरंगुलीस ज्वालारूपता।।

संकल्प संश्रवास अभिन्नता।

शब्द कैलास हा!।। ।।३०।।

 

ओतप्रोतवा उदानशक्ति।

परिणतवा पतत्रिणवृत्ति।

उर्ध्वऊर्ध्ववा जीवनवीचिगति।

धवल शैला रोहण सिद्धवा  ।। ।।३१।।

   

रात्रौ १०.०८

 

धवलक्षीर लहरवील श्यामसमुद्रा।

आणि तेथ प्रतिबिंबवील नाथचिन्ह जे प्रेममुद्रा।

सुवर्णसूत्रवील महाकारणिंच्या छिद्र छिद्रा।

अभय मुद्रा!  ।। ।।३२।।

   

मणिचतुष्कोन खचिला अंतरिक्षीं।

संप्रेवशले चार कलहंस पक्षी।

पदनृत्यलें कलिका प्रकाशीं।

संवित्छत्र उभविलें!  ।। ।।३३।।

   

रात्रौ १०.३८

 

अवधूतोत्तम स्वाकारले।

चौ. गो. च्या प्रेममुद्रेंत रंगले।

संवित् स्पृष्टल्या ब्रह्मकोशीं संगले।

संस्पर्श प्रापक त्याचे पाउका!   ।। ।।३४।।

   

‘आमुच्या पाउका  पुढील हिमालय।

एक निमिषांत करूं  भस्मप्राय।

आमुचा कर्पूरपंथ निष्कषाय!   ।। ।।३५।।

   

फुल फुला खालीं फुले आमुचे शीर्ष।

नेत्रा नेत्रा पुढें चमके आमुचा प्रकाश।

भालीं भालीं सहजें आमुचा पदन्यास।

स्वयं स्वपूजक आम्ही!   ।। ।।३६।।

   

तुमच्या स्मितीं स्मितीं विखुरला माझा आनंद।

तुमच्या श्वासीं श्वासीं माझें पंचप्राणस्पंद।

तुमच्या मोदीं मोदीं निर्झरे सुख निःस्यंद।

माझ्या महाकारणिंचा!  ।। ।।३७।।

   

रात्रौ १०.५३

 

तुम्ही मानवें माझ्या मोदमंजरी।

तुमचे कोटिकष्ट सदैव वाहतो शिरीं।

तुमच्या रक्षेस आमुची स्वैर वावरी।

उपतिष्ठेल सर्वदा! ।।३८।।

   

वंचितल्या, वाट चुकल्या मानवकुला!।

शरणशैल हा शब्दाकारला।

सर्व दुःखांची धाय मोकला।

पदीं माझ्या! अन् हंसा!  ।। ।।३९।।

   

रात्रौ ११.०२

 

आतां गो रसाचा पीत आभान।

आतां मौक्तिका मूर्तीचे सुवर्णदर्शन।

आतां संवित् लेखेचे अल्पदर्शन।

स्थिर - स्थिर - स्थिर - निष्पंद चौ देहाचा  ।। ।।४०।।

   

रात्रौ ११.१२

 

येथ ज्ञान कलांचा नृत्यरास।

गोपल्या रत्नांचा सुस्पष्ट प्रकाश।

युगदेहीं  नवऋत स्रोतसीचा अंत:प्रवेश।

उगमऊं उत्तमाज्ञा ही! ।। ।।४१।।

 

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