उन्मनी वाङमय

१४ ऑक्टोबर १९३८

१४ ऑक्टोबर:

एकूण श्लोक:७५

 

सकाळी ०९.५५

 

संविदनुभवाचें स्वैर तारुं।

सुनील सलिलीं लागतां भरारूं ।

संचार-अवधूत म्हणती ‘साक्षात्कुरू।

जय! स्वात्मन्! अगस्तितेज इदम्’  ।। ।।१।।

   

तेज हें आपुल्या अतिकारण जननीचें।

मार्गदर्शक जणुं ध्रुवबिंब अत्त्युत्तर दिग्भागाचें।

फुटल्या नावेंत मोडता रश्मि जो नाचे।

ठेवा तेथ अनुसंधान   ।। ।।२।।

   

कल्लोळल्या वीचीवरी वीची।

गर्दी ही रोहिणी भावनांची।

अर्थवत्ता गतिस्तंभप्रक्रियेची।

रोहिणी वृत्तींत ओळखा   ।। ।।३।।

   

सकाळी १०.२५

 

‘रोहिणी’ आमुचा कुंभक श्वास।

महावाक्यार्थांचा स्थायी उद्भास।

गतिभावाचा विरोध विकास।

रोहिणी दर्शन हें  ।। ।।४।।

   

रोहिणी भाव ही संवित् कलेची सुषुप्ती।

किंवा श्रीमहातत्त्वाची स्थिरज्ञप्ती।

अथवा भैरवीचक्राची स्थाणुगती।

जय श्रिये! रोहिणीभावने!  ।। ।।५।।

   

आता चलत्-पादलें श्री व्यूहचक्र।

येथली युगगती स्वभाववक्र।

निष्कांचन येथलें श्रीमंत श्रीशक्र ।

उफराटी अन् वर्णव्यवस्था  ।। ।।६।।

   

मातंग अस्पृश्य पंचम।

आमुच्या व्यवस्थेंत चमकती द्विजन्म।

यदि तया जीवकां विश्राम।

श्रीजनसेवेंत  ।। ।।७।। सकाळी १०.३२

   

अज्ञ आर्त आणि उन्मत्त।

अविवेकी, आसक्त, मदमस्त।

कामुक, असहिष्णु, अप्रकाशित।

प्रामुख्यें श्रीजन हें   ।। ।।८।।

   

विनयन या श्रीजनश्रेणीचें।

अवतार कार्य श्रीत ‘मनुदेहाचें’। सकाळी १०.३९

प्रकट ध्येय अव मह लोकत्रयाचें।

उत्तम धर्म अद्य युगाचा   ।। ।।९।।

   

जातिजन्म येथें अमुख्य।

कर्मवर्ण येथलें असंख्य।

तस्मात् जातिभेद येथें चतुःसहस्राख्य।

चातुर्वण्य चतु:सहस्रलें  ।। ।।१०।।

 

एकमात्र जीवनीं बहुवर्ण संभव।

प्रतिदिनिं प्रकटती शूद्र वैश्य क्षत्रभाव।

श्रीब्रह्मवर्णाचें कीं नुरले शब्द नांव।

या नांव वर्णसंकर  ।। ।।११।।

   

प्रतिक्षणी प्रतिदिनीं प्रतिजीवनीं।

चतुर्वर्ण संकरती वृत्तिदर्पणीं। सकाळी १०.५०

यस्मात् निश्चित वर्ण लक्षणीं।

संदेह हा सहजभाव  ।। ।।१२।।

   

 

रैक्व ब्राह्मणा ‘शूद्र’संबोधना।

मातंगदेहा  श्री श्री श्री ब्रह्मभावना!।

पिंगलेस ललितापद समर्पणा!।

वर्ण बाहुल्य तत्त्वगर्भ हें  ।। ।।१३।।

   

रंगोटी झळके जी कारणदेहीं।

अस्पष्ट प्रतिबिंबे ती त्रिप्रवाहीं।

आचार उच्चार विचार या त्रि स्नेहीं।

तेवते वर्णज्योती   ।। ।।१४।।

   

सकाळी ११.००

 

कारण देहांचे वर्ण अप्रकट।

तेथ डोळवणें दृष्टि सुधीट।

तेथ बिंबभावलें श्रीपीठ।

वर्ण-द सामर्थ्य तेथिंचें  ।। ।।१५।।

   

दीधीतन संस्कार ब्राह्मण्य हेतु।

दीधीत ब्राह्मणा श्रीदेवयान पंथु।

तेथ भूमाभाव श्रीकेतु।

यज्ञोपवीत त्या नांव  ।। ।।१६।।

   

पंच जन्मजातींचे दीधीतन।

हेंच ब्रह्मान्हिकाचे पंचयज्ञ।

अदीधित मानव्याचे शेषान्न।

अवधूत अतिथियां साठीं!  ।। ।।१७।।

   

येथलें शेषान्न यजमाना विषग्रास।

येथला काकवली पवित्रित कारणान्न।

संकल्पन मंत्र येथलें त्रिसुपर्ण।

सुपर्णोत्थान हें!   ।। ।।१८।।

   

ब्राह्मवर्ण ही दीप्तिरेषा।

जरि अणुमानव्य लाधे तेथल्या क्षणस्पर्शा।

तरि निखिलमानव्य महाद्वार प्रवेशा।

होईल सहज शक्त   ।। ।।१९।।

   

धगधगलेली ती ब्रह्मज्वाला।

जयाचीच क्षत्रभाव ही ज्योतिकला।

वैश्य शूद्र पंचम ही स्फुल्लिंग माला।

तेजस्तत्व एकमात्र  ।। ।।२०।।

 

स्फुल्लिंग ज्योति आणि ज्वाला।

अग्नि तेजाचा सुवर्णभाव त्रिविधला।

जणुं कीं अहिकल्प त्रिनेत्रला।

व्यवस्थान वर्णांचें  ।। ।।२१।।

   

नवशारदीय आमुची इंद्रधनु।

येथले डोळवा सप्तवर्ण कणू।

जन्मवी अभिनव समष्टि तनू।

कर्म-कुशला ही नव स्मृती  ।।  ।।२२।।

   

सकाळी ११.३०

 

देखा, ओळखा, महोदयपर्व हें।

अवतरलें जणु श्रीतत्त्वसर्व हें।

महासिद्धि तंत्रांचे अथर्व हें।

श्रीनवव्यवस्थापन!  ।। ।।२३।।

   

इंद्रधनूच्या सप्तवर्णांचे परिवर्तन।

स्वैर-चालले जेथ अल्पचितींचे मंडलन।

सहजस्थितें कीं व्हावें भूमातत्त्वाचें अंतर्वितरण।

क्रमविक्रास रीत्या   ।। ।।२४।।

   

सकाळी ११.४०

 

या! या! जीवसंख्यांनो! बैसूं मंडलाकार।

या! या! करूं निजमहांचा परिष्कार।

या! या! उषस्-सूक्तीं उत्थानूं श्रीप्रभाविष्कार।

उषस्-सूक्त श्रीसंहिता ही!   ।। ।।२५।।

   

झरझरा अवधूतपाद लागले चालू।

भरभरा रत्नकोश देखा! लागले खोलूं।

तरतरा ओष्ठद्वय, ऐका, लागले बोलूं।         सकाळी ११.४८

श्रवा, श्रुतवा! श्रुतिश्री ही!  ।। ।।२६।।

  

मध्याह्न १२.००

 

धुळवूं आम्ही पाषाणमंदिरें।

बाटवूं आम्ही जडजलक्षेत्रं। 

आणि लाथाळू पूजाद्रव्य पात्रें।

मूर्तिभंजक आम्ही !  ।। ।।२७।।

   

उन्मेषला माझा मध्यान्ह नेत्र।

प्रारंभिलें आज महाज्वलन सत्र।

नोळखूं हें व्योम कीं धरित्र।

पेटवू सप्तलोक!  ।। ।।२८।।

   

भूकंप भुवस्कंप सुवस्कंप।

महाकंपाचा सोडिला आज संकल्प। दुपारी १२.०७

कीं सामोरावे उदयाचलींचे नवकल्प।

पुन: सृष्ट्यर्थ संहार हा!  ।। ।।२९।।

    

देवुकल्यांच्या कंठीं लावूं नख।

जीर्णाचाराचें धर्मशास्त्र द्विपंख।

मोडूं, पुन:संस्थापू श्रीमहालोक।

स्मशान राखेंत या!  ।। ।।३०॥

 

आंधळया कर्मसंस्कारांचे मोडूं पेंकाट।

शाब्द, द्राव्य पूजाविधींचा करूं नायनाट।

कुजक्या काष्ठांचा अग्निप्रलय विराट।

इंधवू आज!   ।। ।।३१।।

   

आटविल्या नदीच्या अभिनवपात्रीं।

आम्ही ओघळवूं महाजीवन सरस्वती।

जी सप्तवर्ण सिंधूंची सहज संगती।

नवयुगानुभव हा  ।। ।।३२।।

   

जाळूं या जीर्णयुगांचीं लक्तरें।

पोळूं या जीर्ण नीतीचीं मखरे। दुपारी १२.३०

माळूं या नव धर्ममौक्तिकें प्रज्ञासूत्रें।

आणि पूजूं नवजीवनीं!   ।। ।।३३।।

   

प्रलयंकार आम्ही भयानक।

आमचा अश्वत्थ अनंत शाख।

आमुच्या मशाली नवनवलाख।

जाळपोळ ही!   ।। ।।३४।।

   

दुपारी १२.३१

 

भैरव क्रिया, भैरव श्रीचक्रा दिली कलाटणी।

जी उद्ध्वस्तील प्राप्त धर्म श्रेणी।

चढवील सुवर्णाकार लेणीं।

अंगीं समष्टिबालेच्या  ।। ।।३५।।

   

हाट आमुचा अंतराळी!

आणा जीर्ण वस्तुतत्त्वांचीं भेंडोळीं।

आणि घेऊनि जा नवरत्नें हीं अंचली।

परि मृत्यु येथिलें मूल्य!   ।। ।।३६।।

   

दुपारी १२.३७

चालवा स्वकंठी ही असिधारा।

अनंत युग कोटींचा अहंदेंह मारा।

आणि अनुभवा नवजातक संस्कारा।

महाजातक अमृतत्त्व हें!   ।। ।।३७।।

   

येथ जातकलेल्या चिती।

संश्रवण श्रेणी संश्रीत संतती।

तयांची अभिनव महदनुभुती।

प्रतिबिंब संवितीचें!।। ।।३८।।

   

आमुचें हत्त्याकांड नवजीवनासाठी।

आमुची जाळपोळ नवोद्यानासाठी।

आमुचा प्रलयाग्नि नवसृजनासाठीं।

विधायक संहार हा!  ।। ।।३९।।

   

नमोsस्तु ते! जयिश्रिये! संवर्तज्वाले।

हिंसक तत्त्वनीरांच्या महामेघमाले!

अनंत युगसाक्षिणि! दंष्ट्राकराले।

मूर्तिभंजके! पुनः संजीवनि   ।। ।।४०।।

 

संध्याकाळी ०५.२५

 

स्वस्तिश्रिये! जयश्रिये! नैऋते।

आंतर्नीलांजसे! श्रीसुषुप्त्यर्थे।

नेदिष्ठे! नीलनयने! सुस्वस्तिके।

नमस्या तुला!   ।। ।।४१।।

   

अंतः प्रवेशतां ही रहस्य शिक्षा।

नेदिष्ठेल महाबीज संरक्षा।

दुरवील अधःपतन कक्षा।

सांभाळील जीवश्यावका!  ।। ।।४२।।

   

संध्याकाळी ०६.००

 

नील नील न भ्राज वोळंगले।

गूढ गूढ निक्षेप अंतर्गर्भले।

सौम्य सौम्य स्फूर्तिरश्मि तवंगले।

रोहिणी भावीं   ।। ।।४३।।

   

अश्वत्थांत कोरिलें एक निष्कुह।

जेथ अल्पचेतनांचा समूह।

किलबिलें आणि निष्पादवी जो कलरव।

तदर्थ आम्हा ठावा  ।। ।।४४।।

   

कुहुंगीत तें आम्हासी आकर्षण।

तदनुसंधानें आमुचे उच्चतम उड्डाण।

आमुच्या वक्षीं त्या अजाण अर्भकांचे स्तनपान।

आपचेच अल्प जन्म ते  ।। ।।४५।।

   

जेथ जेथ निष्कषाय वृत्ती।

जेथ जेथ दीनतार्चन संपत्ती। 6.12pm

जेंथ आर्तांसि दीपें सुखार्ती।

तेथ आमुचें सुखासन  ।। ।।४६।।

   

झरणी दु:खाश्रूंची अलोट।

तीच आमुची मौक्तिक वाट।

जेथ उभली त्रस्त निःश्वासांची लाट।

आमुचें तीर्थक्षेत्र तें!  ।। ।।४७।।

   

पांगुळ्यांच्या आम्ही पाउका।

स्थानभ्रष्टांचा आम्ही बैठका।

पतत्सूंच्या पीठभूमिका।

सेवा आमची नैजवृत्ती!  ।। ।।४८।।

   

उद्वेजितांच्या निकटीं।

आम्ही विश्रामतो आमुच्या निष्कुटीं।

दरिद्रतेच्या चंद्र मौलिमठीं।

सदैव आमुचा अधिवास  ।। ।।४९।।

   

सुवर्ण मंदिराचे आम्ही द्वेष्टे।

दलित दीनांचे दैन्य द्रष्टे।

पतितांचे उदयभाव स्रष्टे।

सख्यभाव तेथ आमुचा  ।। ।।५०।।

 

रंजल्या गांजल्या शेजारी।

बैसुनि विभागू आमुची मधुकरी।

दुराश्रित चाकरांची चाकरी।

स्वाराज्य वैभव आमुचें तें  ।। ।।५१।।

   

पुसावया एक अश्रु लहानगा।

धावूं आम्ही तुडवीत लगबगा।

नंदनवनिंच्या गुलाब बागा।

अश्रु चुंबक, लोह, देह आमुचे!  ।। ।।५२।।

   

स्फुटली जेथ करूण किंचाळी।

जेथुनी न ढळे दुर्दिन सावली।

तेथ आमुची अवधूत पाउली।

सुखेनैव संचरते   ।। ।।५३।।

   

निःस्तब्ध व्हा! 

ऐका आमुची चाहूल।

चेउनियां नेत्रवा हें प्रकाश फूल। संध्याकाळी ०६.४५

शीर्षवा ही भैरवपद धूळ!  ।। ।।५४।।

   

अष्टकौस्तुभ अष्टांग कोनी।

रत्नखचिलें श्रीब्रह्मभुवनीं।

श्रीगुरू आज्ञा संतर्पणी।

चौ-देह झिजूं दे  ।। ।।५५।।

   

नगरी ही आटपाट।

श्रीभाव नि:स्यंदला कांठोकाठ।

संवित्तीची ही डोंगर लाट।

विश्वशीर्षिं उत्तंसली !   ।। ।।५६।।

   

अष्ट झोत येथ धाविन्नले।

अष्ट पुष्पकुंज येथ सासिन्नले।

अष्टदेह दिग्गज मदोन्मत्तले।

संविद् विस्फार विराट हा!  ।।   ।।५७।।

   

अष्ट केंद्रांची आठोपळी।

अष्ट ग्रहींची कदान्न झोळी।

अष्ट त्रिपदांची भूपाळी।

सुप्रभातीं या श्रवविली!  ।। ।।५८।।

   

संध्याकाळी ०७.०१

 

अष्टदलांचा हा कमलकोश।

द्विचतुर्व्याहृतींचा सामघोष।

अष्टावसूंचा बाळसंतोष।

प्रकटला चौ-देह कृपया   ।। ।।५९।।

   

संध्याकाळी ०७.१५

 

अष्टकोन आतां मध्यकेंद्रले।

अष्ट दिग्बंध नीलग्रंथींत संबंद्धले।

अष्टमहाश्रोत  आजि एकमुखले।

भैरवोदधींत या!  ।। ।।६०।।

 

संध्याकाळी ०७.२२

 

मत्स्यानें गिळिलें एक माणिक।

मूल्य तयाचे नवनवति लाख।

रूजविला एक प्रकाश पारव।

‘स्थिरभान’ स्पर्शे!  ।। ।।६१।।

   

जीवनिष्कु हें आम्ही हेरतो।

रत्नबीजें बहुमोल आणि तेथें पेरितों।

आज्ञाचक्रा प्रथमागति प्रेरितो।

‘क्षीरस्पर्श विधान’ हें  ।। ।।६२।।

   

जीवकोशांनों खोला पाकळी पाकळी।

सगर्भांनो उकलवा ग्रंथी मोकळी मोकळी।

आणि देखा अरूंधती जी हांसली हांसली।

नोधा हास्य विभिन्नलें!  ।। ।।६३।।

   

एकसमयें सगळे आम्ही हसूं।

एक पीठीं सगळे आम्ही बसूं।

एक गोठीं सगळे आम्ही पुसूं।

एकमेकां ।। ।।६४।।

   

कदंब कलिका जैशा मुकुलती।

मुकुलुनी सौरभ हास्यें प्रस्फोटती।

तैशी संयुक्तलेली शतैक वृत्ती।

अवधूत पादांची!  ।। ।।६५।। संध्याकाळी ०७.४०

   

उकला कोश कोश दीधीत दृशा।

टाका पाउ पाउ येथल्या अंत:प्रवेशा।

अनुभवा प्रकटल्या नवनवोन्मेषा।

डोळवा अरुंधति बिंब!  ।। ।।६६।।

   

ऊर्ध्व ऊर्ध्व गतीचें भान।

देखणें चढती चढती कमान।

साधणें बिंबा बिंबाचें ध्यान।

आंतर अनुक्रमें  ।। ।।६७।।

   

अठ्ठावीस प्रतीकांचें सम्यग् विभावन।

एक एकाचा सम्यग् न्यास सम्यग् ग्रहण।

उत्तरोत्तर प्रगत पदांचे व्यवस्थापन।

अरूंधति दर्शन हें!  ।। ।।६८।।

   

अरुंधति भानांच्या जवनिका।

एक एक मावळतां दुजी दुजीस देखा।

प्रकाशा प्रकाशांतरिंची नवोनव लेखा।

अरुंधति गौप्य हें!   ।। ।।६९।।

   

लोक लोक यथाक्रम मावळलें।

अश्वत्थ अश्वत्थ अनुक्रमें पालवले।

चरण चरण बागेश्रींत तालवलें।

अरुंधति लास्य देखा हें!  ।। ।।७०।।

 

सोलला पापुद्रा पापुद्रा कंदर्पाचा।

देखला आविष्कार अवकाशगर्भाचा।

घेतुला मागोस मूळ मूळ निरुक्ताचा।

नुरे अर्थ, स्फुरे गगननाद!  ।। ।।७१।।

   

भावभाव निवटितां ‘देहोsहं’ वृत्तीचे।

अंतिदर्शन एकमात्र चित्कलेचें।

ऊर्ध्ववितां पडदे पडदे ‘अस्मि’जन्य चेष्टांचे।

विशुद्धा झळके श्रीमहाचिति  ।। ।।७२।।

   

‘अरूंधति’ ही दीप्ति-पथिंची प्रकाशांगुलि।

चुकत्या वासरांची मायगाऊली।

पोळल्या पथिकांची श्यामसावली।

पर प्रतीक हें श्रीभावाचें!  ।। ।।७३।।

   

संध्याकाळी ०८.१५

 

साशन अनशन प्रकृति हा द्विविध।

पुरुष भाव या स्वरद्वयीं व्यक्तल्या विशद।

त्रिस्तत्त्वांचा या समन्वित प्रसाद।

‘सुश्रीत’ अवस्था ही! ।। ।।७४।। संध्याकाळी ०८.२२

   

संध्याकाळी ०८.३५

 

जयश्रिये! तत्त्व स्त्रिशिखे! कर्पूरगौरे।

महाभैरवि! कृष्णदाम्नि! चंद्रकोरे!।

अरूंधति प्रतीके! रयि प्राणनूपुरे।

अजय्ये! पिप्पलादे  ।। ।।७५।। संध्याकाळी ०८.४०

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