उन्मनी वाङमय

१२ ऑक्टोबर १९३८

१२ ऑक्टोबर:

एकूण श्लोक:२७

 

संध्याकाळी ०६.३९

 

‘तत्’पदें प्रातीतिक निर्देश्य।

न कीं ब्रह्म वाङमनसा जें अस्पृश्य।

महावाक्यार्थ विरूद्धविला निःशेष।

प्रकट वेदांत दूषविला।।       ।।१ ।।    

 

‘असि’ रूप आम्हा चैतन्य ज्ञापक।

कारण सत्ता स्फुरणाचें तें निदर्शक।

‘तद्’ भान सत्तास्वरूपासि दूरक्षेपक।

अत एव जडभान तें  ।। ।।२।।    

 

‘तत’ निर्दिष्ट जें ब्रह्मकैवल्य।

तेथ कैंचा स्फुरेल भाव अनन्य।

‘तत्’ हें पूर्णतैव अन्य।

आणि अन्यत्वप्रापक  ।। ।।३।।    

 

सत्ताभाव ही निजरूपव्यंजना।

तेथ कोठली उमटे तदर्थना?।

‘तत्’ शब्दें ब्राह्मप्रतीकाची वंचना।

प्रमत्तसंज्ञा ती  ।। ।।४।।    

 

‘तत्’ शब्दें लक्षणावें प्रतीतव्य।

न कीं निजाद्यस्वरूप-स्वयंसेव्य।

आणि ‘असि’ शब्द सहज-संवेद्य।

श्रीसत्ता स्वस्वरूप  ।। ।।५।।    

 

‘असि’भानांत महाचितिचें स्फुल्लिंग।

‘त्वं’भानांत अल्पदेशीं  कैवल्याचा अध्यस्तरंग।

जणुं शुद्ध स्फटिकीं जपाकुसुमाचा बिंबसंग।

‘त्वम’र्थ ही मूलमायाग्रंथि   ।। ।।६।।    

 

स्वरूपतः अहमर्थ त्वमर्थ तदर्थ।

असती पृथक्कारितां सजडजडावस्थ।

परि ‘असि’भान उगमतः तद्व्यतिरिक्त।

अत एव स्वस्वरूपलक्षण!   ।। ।।७।।    

 

‘असि’, ‘अस्मि’, ‘अस्ति’, भानत्रय हें।

निवृत्तज्ञानाचें विक्षेपक स्वभावें।

प्रवृत्तांत दुडु दुडु दुडु धावे।

लीलारंगणीं   ।। ।।८।।    

 

निवृत्तिबोध हा उलट चालीचा।

येथ ‘ऊर्ध्व’पदीं अधःशीर्षीं नाचा।

अभिप्राय लपविण्यासि वाचा।

प्रस्फुरे येथें  ।। ।।९।।    

 

संध्याकाळी ०७.२०

 

असि-स्मि-ति हा चैतन्यप्रणव।

अउमांचा येथें अप्रकटभाव।       संध्याकाळी ०७.२६

म्हणोनि त्रिपद गायत्री ही सहजस्वभाव।

चेतनेचा  ।। ।।१०।।    

 

तस्मात् ‘असि’ पद हें संश्रवणभूमि।

त्वंपद हें संकलनभूमि।

तत्पद हें संवेदनभूमि।

महानुभाव वाक्य हें!।। ।११।।    

 

‘स्वस्ति’ शब्दाचा महासंदेश हा!।

महाश्री-बिंबास व्योमदर्पणीं पहा।

अश्रुतपूर्व नादें आश्लेषिली गुहा।

प्रतिध्वानवों मानव्याकाश !    ।।१२।।    

 

संध्याकाळी ०७.४८

 

नि:शेष मानव्य आमुची रंगभूमी।

आमुचा संचार आंतर घट व्योम्निं। 

आमुचा निजनिवास निस्तंभ धामीं।

महाश्रीचे जणुं तत्त्वतुषार    ।।            ।।१३।।    

 

रत्नगुहेंत विकसलेली वल्ली।

कीं कमलिनी फुलेली श्रीसलिलीं।

वा, तृतीयनेत्रदीप्ति श्री शं भालीं।

महावाक्यानुभव हा!।। ।।१४।।    

 

संध्याकाळी ०८.२२ 

 

‘आमोद’-लव घ्राणितां पुष्पदर्शन।

रश्मितेज डोळवितां चंद्रबिंबभान।

अणुदेह अंगुळितां स्फुरे महाकारण।

अंशांत ‘पूर्ण’ बिंबला!।। ।।१५।।    

 

एकनाद घुमवी सकलां सामश्रुति। 

एकशब्द ‘हा’ सम्यक्-ज्ञातां मूर्तवी मुक्ति।

सायुज्यता सन्मुखवी एकशरणागति।

श्रीमहास्कंधीं समारूढतां!।। ।।१६।।    

 

एकमुकुलीं लक्षणलें वृक्षजात।

एकरेखया व्यक्तलें संपूर्णचित्र।

आणि एकवृत्त्या प्रफुल्ललें अंतश्चित्त।

वेडावलों मी महामूढ!।। ।।१७।।    

 

नयन-सखे! संभाळ ही मोहनिद्रा!।

मोहगीत आलिंगि हें श्रुतिरंध्रा।

प्राणदेव कवटाळाया ऋक्छंदा।

द्रष्टार व्हा! मोहनिद्रया!।। ।।१८।।    

 

पाउलवाट आमुची वाकुडी।

श्रीमंते आमुचीं सदैव बापुडीं।

आमुच्या आश्रितां दुर्दैव थापडी।

क्षणोक्षणीं, स्थलस्थलीं! ।। ।।१९।।    

 

इवलीशी आमुची ओळ।

सख्यभाव आम्हातें तुरळ।

रजतरसाचा लहानगा ओहळ।

आमुचा बंधुवृंद।।।।२०।।

 

आमुच्याशीं करणें अंगलट। जणुं कीं अनुभविणें अंगारभेट। आमुचा मुक्काम स्मशान पेठ। आमुचा वास्तु शून्याकार!।। ।।२१।। माझ्या अतिथीस इंद्रपद सदैव। माझ्या आश्रितांस तेजोविश्ववैभव। माझ्या सेवकास सिंहासनीं ठाव!। स्थिर संचार ओळखा माझा!।। ।।२२।। तीन पाऊलीं आमुची गती। चतुर्थिच्या महाकारणीं आंमुची स्थिति। श्रीमधुविद्येंत महासंगति। इतस्ततलेल्या तत्त्वसूत्रांची!।। ।।२३।। विद्यया, श्रद्धया, चोपनिषदा। स्वीकरी ही श्रीसंपदा!। जीवसखे! वासवी विद्या ही अन्नदा। येथ सहस्रदळली!।। ।।२४।। स्मृति हें वृत्तिज्ञानाचें स्वरूप। मूर्ति हा मनन मृत्तिकेचा स्तूप। स्फूर्ति हा गो-राखलेला धूप। येथ उदो! उदोला!।। ।।२५।। अध्युष्ट-भूमि आज लहरली। आंतर व्योम जान्हवी तटस्थली। श्रीमहाशून्यवृत्ति सलीलली। स्वस्मि! स्वसि! स्वस्ति! भानें!।। ।।२६।। संध्याकाळी ०९.०७ स्वस्तिश्रिये! स्वस्तिश्रिये! कोलांहलकारिणि!। स्वस्तिश्रिये! स्वस्तिश्रिये! हालाहलपानी! अन्नादे! सुयवसि श्रीमहन्नाम्नि। आद्यवतंसिनि! स्वस्तिवटेश्वरि!।। ।।२७।। संध्याकाळी ०९.१५

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