६१-८०

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उद्गीथ - नाद देहघुमटीं।

प्रतिनादला `एें` बीजासाठीं।

पुन:स्फुरला `ऱ्हीं' बीजापाठीं।

`क्लीं` बीजांत संस्तब्धला!   ।। ।।११।।

   

उद्गीथ शास्त्र हें श्रियादृष्ट।

संप्रभास येथला प्रतिवषट्।

`ज्ञं` `हं` `रं` येथलें कूट।

त्रिनेत्रलें गौरांगभालीं!  ।। ।।१२।।

   

उद्गीथाचें सौम्य सारस्वत।

आज झालें सहज - सनाथ!।

`संप्रदाय' ही क्षीरधारा संतत।

पुष्टवी कारणश्रेणी  ।। ।।१३।।

   

गोरक्षाचें गोदुग्ध घनाकारलें।

नवनाथांचें दारिद्रय धनाकारलें।

आदिनाथांचे शरीर जनाकारलें।

ब्राम्हणदेहीं या!   ।। ।।१४।।

   

माध्यान्हली श्यामा रजनी।

क्षण हा मंगलोत्तम मुहूर्तचिंतामणी।

पाडसां गोरक्ष-माउली धरी स्तनीं।

दुभले चतुर्देहांचल   ।। ।।१५।।

   

गोरक्षविद्येचा फुटलेला पान्हा।

व्यक्तवील जगीं महाजीवना।

भेटवील जीवजाति नयनां।

महाबिंबानुभूति!   ।। ।।१६।।

   

उद्गीथाचे फेकिले हीरक।

वृश्चिकाचे करविले डंख।

मृत्तिकेचे मोडिले मंचक।

तदैव महानुभूति!   ।। ।।१७।।

   

सत्त्यें भिर्काविलीं 'ऋतांत'।

कर्मे उद्धस्तविलीं उद्गीथांत।

शास्त्र सहस्त्रें अद्वैतवलीं सहजाचारांत।

प्रेमधर्म धर्मराज!   ।। ।।१८।।

   

इंद्रिय प्रांगणीं भोगूं विशुद्धप्रेम!।

घाणलेल्या देहीं खेचू कर्पूर धाम।

बोबड्या भक्तिगीतीं नादवूं श्रुतिसाम।

`उद्गीथतंत्र` गोरक्षाचें ।। ।।१९।।

   

दशमीस दहावा नाथावतार!

स्वर्णित भविष्याचा आविष्कार!

रत्नरंजित तत्त्वदेहाचा प्राकार।

येथ सजावटला!   ।। ।।२०।।

 

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