उन्मनी वाङमय

चौ. रे. एकासनस्थले। साक्षात् प्रत्यय अद्य:क्षणीं! ।।

२२-७-३९

 

पदर ओघळले मौक्तिकांचे।

अंबर उफराटले तारकांचें।

सरोवर सुगंधलें कमलिनींचें।

क्षीरलहरी शर्कराकारल्या!   ।।              ।।१।।    

 

मत्स्यनेत्रांचा प्रसन्नोन्मेष।

नाथगुह्याचा सारस्वत आदेश।

अश्वत्थाचा ऊर्ध्वगामी प्रवेश।

स्फटिकगुहेंत विशुद्धीच्या  ।।                  ।।२।।    

 

स्फुरत्ज्वाला प्रकटली महामखीं।

विद्युत्गति संचरली स्फूर्तिपंखीं।

रेवणांगुलि प्रकटली प्रसादकौतुकीं।

संगतल्या भीमा अमरजा! ।।                ।।३।।    

 

ज्ञानलालित्य एकवटलें।

चौ. रे. एकासनस्थले।

वट पिंपळ एकमूळले।

साक्षात् प्रत्यय अद्य:क्षणीं! ।।            ।।४।।    

 

प्राकृतिक बीजरेणू देख शाखा पल्लवले!।

द्वयनाथ ओळख घनाश्लेषीं एकदेहले।

द्वारपाळ जणुं महाद्वारीं एकगेहले।

दोन फुप्पुसें श्वासोच्छ्वासतीं!  ।।            ।।५।।    

 

महर्र्लोकाचा पूर्ण स्वाहाकार।

संवित्शरण्याचा व्यक्त `वषट्'कार।

संकल्पन विधीचा 'श्रीमत्' संस्कार!।

सावित्रीचें सौभाग्य - दर्शन हें। ।।            ।।१।।    

 

भूमामण्डल शुक्लाध्यस्त गिरिशैल।

श्यामबिंदु कांचनगंगेच्या पैल।

हंसभानाचा ऊर्ध्वमुख वियद्वेल।

त्रिपाद हे नाथ सावित्रीचे ।।            ।।२।।    

 

अर्धपादांत अखण्डमण्डल केंद्रावले।

अंतश्चक्षूंत संहितातत्त्व श्रौतरूपलें।

ध्यातृत्रिपुटींत अधिष्ठानबीज निरवस्थलें।

अर्घ्यप्रदान अनर्घ्यस्वाचें! ।।                ।।३।।    

 

अवकाश मापुनी साधले दिग्बंध।

पश्यंतींत प्रकटविले मूल-श्रुति-छंद।

चित्रिलें कीं एक स्वर्ण-स्वप्न-सांद्र।

जागृति जी स्व-स्वाची ।।            ।।४।।    

 

प्रत्यग्भाव येथला छत्तीसगुणी।

विषयीभाव येथला अधोमुख स्वाधिष्ठानी।

येथ विषयाकारली तुरीय उन्मनी।

पंचामृत हें गुजगायत्रीचें!  ।।            ।।५।।    

 

`विक्षेप' हा स्थूलभुक्तत्त्वाचा स्वभाव।

यात निर्यात `सूक्ष्मभा'चा प्रभाव।

संस्पर्शन हंसस्वाचा  शुभ्रोद्भाव।

नियोग म्हणजे श्रीमत्स्वधा!।।          ।।१।।    

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