उन्मनी वाङमय

श्रीकायांत ओळखावी सुषमा।

८-७-३९

 

`ये समाना समनस:

जीवो जीवस्य मामका:।

तेषां श्री: मयि कल्पताम्

अस्मिन् लोके शतं समा:।। एक श्लोक    

 

श्रीकायांत ओळखावी सुषमा।

सजातीय समनस्कांचा प्रकट भूमा।

जेथ समन्वयल्या प्रवृत्ती विषमा।

श्रीतत्त्वाच्या कल्पन योगें।। .।। १ ।।    

 

श्रीतत्त्वाचा श्रियाळ निक्षेप।

ऱ्ही सत्त्याचें प्रियाळ प्रतीक।

शं बीजाचा वेल्हाळ वैराजक।

प्रफुल्लाकारले वियत्कायकोशीं।। ।। २ ।।    

 

``श्रीश्च'ते लक्ष्मीश्च पल्यावहो रात्रे पार्श्वे नक्षत्राणी रूपम्।

अश्विनौ व्यात्तम्।''

वियत्कायांत विरोध एकवटले। 

वियत्कायांत चित्त प्रत्यय वस्त्वाकारले।

वियत्कायांत नाथहेतू श्रीकूटस्थले।

स्वाराज्य वैराजलें स्वभावत:।।३।। ।।  ३  ।।    

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