उन्मनी वाङमय

पश्यंती ही त्रितीय श्रेणीं। अर्जुनें प्रतीयली विश्वरूप-दर्शनी।

१६-४-१९३९

 

मंत्र द्रष्टारांचें दर्शन शैल।

अतींद्रिय प्रत्यक्षांचें तीर पैल।

जेथ देहो%हं भावाचे पाश सैल।

सहजत: एव निराकारती   ।।            ।।१।।

   

पश्यंती  ही त्रितीय श्रेणीं।

साक्षात्कृती जी भगवत्- गायनीं।

अर्जुनें प्रतीयली विश्वरूप-दर्शनी।

ज्ञानैश्वर्याची बिजवल्ली ।।              ।।२।।

   

पश्यंती पीठीं `ऋतां`चा साक्षात्कार। 

अतींद्रिय रुपकांचा आविष्कार।

केवल-कुशलांचा श्रीवशट्कार।

वर्षाव आशिर्जलांचा  ।।            ।।३।।

   

अतस्मिन् तद्भावाचा विनाश।

जन्मजन्मींच्या सद्दर्शनांचा अनुप्रास।

हृदिस्थ वाग्बीजाचा कलविकास।

श्री पश्यंती भू:।।              ।।४।।

   

विशेषा विषेशातलें सामान्य।

प्रत्यया प्रत्ययांतलें प्राधान्य।

जीवना जीवनांतल्या अनुभूती धन्य।

पश्यंती एकंकारती ।।            ।।५।।

   

साक्षित्वाचा लेशानुभव स्वरूपला।

अतीतत्वाचा बाल - भास्कर प्रभातला।

सौषुप्त््र सत्त्याचा आदिकिरण उदेला।

पश्यंतीच्या गुलाब भुवनी  ।।          ।।६।।

   

येथ मूल-मौनाचा उद्गम।

येथ ब्रम्हशामांचा मुहूर्त- संगम।

येथ अवतरे शुक्लाध्यस्त संकर्म।

प्रथमा द्युतिही पराचंद्रिकेची  ।।          ।।७।।

   

ऋतं स्थित प्रत्ययांचा मुक्ताहार।

श्रुतिगत कैवल्य-जलांची धुवाधार।

निरवस्थ स्वस्वरूपतेचा आद्य उद्गार।

स्व संव्येद्यावेद प्रतिपाद्य   ।।              ।।८।।

 

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