उन्मनी वाङमय

बीजेश्वराचा कीं निर्देह आश्लेष। मत्स्यमंत्रांत मूर्तलेला! ।।

२२-१-३९

 

ज्योति  - जान्हवी जटगुहेंत झरलेली।

शब्दश्री त्रिकूटांत स्थिरलेली।

तत्त्वमूर्ति चतु:श्रेणींत विखुरलेली।

ऋद्धि गीति ही आदिबीज! ।।                ।।१।।    

 

संस्कारांची सहजसंगति।

विकृतींची विलक्षणा व्युत्क्रांति।

परोन्मुख प्रवृत्तींची परिणति।

बीजाक्षरी ही रंस्विनी! ।।              ।।२।।    

 

क्षरांत `कं' `शं' 'रं' मुहूर्तभोग।

अक्षरांत एकाधिकाराचा सदातनयोग।

संवित्तेंत षड्बीजांचा विनियोग।

सुसूक्ष्मपीठीं सुव्याकृत!  ।।        ।।३।।    

 

अक्षररेत क्षरबीजगर्भीं।

अनंता आकृति दृग् -दत्त नभीं।

आत्मानंद कीं संनिकृष्ट विषयेंद्रिय संयोगीं।

ऋक्शक्तीचा महान्यास हा!।। ।।४।।    

 

जडाजड भानांची अंत:स्थिति।

विश्ववालुकेंत पीं अंतर्हितली श्रीसरस्वति।

नैष्कर्म्यसिद्धांत प्रवर्तली संकर्मतति।

गर्भबीजा ही विद्या  ।।        ।।५।।    

 

चतुर्देह ही वाङ्मूर्ती चतुष्पदा।

चतुष्कोण कीं चौरंगलेली बीजसंपदा।

संविन्नेपथ्यीं नटली कीं अन्नदा।

महानुभाव नि:स्यंदिनी!  ।।            ।।६।।    

 

मूलचितिचा कीं महोन्मेष।

मूलप्रकृतिचा पुरूषांत अंत:प्रवेश।

बीजेश्वराचा कीं निर्देह आश्लेष।

मत्स्यमंत्रांत मूर्तलेला!  ।।            ।।७।।    

 

बीजामृतक्षीराची ही ओलींव।

निजनिजसत्तेची स्थिति कीं सोलीव।

वृत्तिज्ञतेची अनुभूतली फोलीव।

`बीजश्री' भान हें!  ।।                ।।८।।    

 

आज उघडला तिसरा नयन।

जयाचें नामाभिधान शांकर-ज्ञान।

वस्तुमात्रीं श्रीरामाचें अखंड-ध्यान।

सर्व परिपूर्ण सुखरूप  ।।      ।।१।।    

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