उन्मनी वाङमय

साक्षात्कार श्री रक्तांबरीचा।

३-१०-३८

 

स्वस्तिदे! सुभद्रे! श्रीसहिते।

प्रकृष्टे प्रभास्स्वरे प्राकृते।

वितंटिके षट्कलिके षड्व्याकृते।

आलिंगन तुला!   ।। ।।१।।

   

अश्वत्थवट दोन्ही मूळले।

ज्ञान निवृत्ति एककुळले।

चौ गो द्वारपाळले।

सांभाळिती षड्गुणैश्वर्य!   ।। ।।२।।

   

बावन्न पर्णें या अश्वत्था।

षड्वृत्तली येथली गाथा।

एकवीसवा सोपानपंथा।

षडाष्टक षड्गुणांचे  ।। ।।३।।

   

सप्त्पाताळांचें तळीं।

एकवीस स्वर्गांचे फळीं।

विस्तारली महाकौली।

समय-ज्ञती  ।। ।।४।।

   

दोन विटाळांची मिळणी।

सांबतत्त्वाची स्थूल खेळणी।

लपल्या महत् तत्वाची टेहळणी।

करिती अनंत जीवाणू   ।। ।।५।।

   

आम्ही ज्यांना लावितो राख।

तेथ स्फुल्लिंग प्रभेची फाक।

षडैश्वर्यांचा अभिषेक।

त्यांचे माथां!   ।। ।।६।।

   

आमुचे स्वीकारा भस्मचिमुट।

अष्टलक्ष्मींचे वैभव प्रस्फुट।

होईल तेथ - मात्र प्रकट।

श्रद्धस्व! नमस्कुरू माम्  ।। ।।७।।

   

कोसळतें आकाश सांवरू।

लाडिकांनो अणुमात्र नका बावरू।

आम्ही तुमचे स्नेह सोयरू।

स्नेहाळलो स्वस्फूर्तीने  ।। ।।८।।

   

तांबूलरस श्रीसरस्वतीचा।

आविर्भाव ललितारहस्याचा।

साक्षात्कार श्री रक्तांबरीचा।

जय श्रिये! रक्ताश्रिये! मां रक्तयस्व!   ।। ।।९।।

   

निवृत्तिगार्हस्थ्याचा मणिमुकूर।

अस्मत्कृपया, स्वेच्छयाच स्वीकुरू।

प्रलयलेलें तेजोबिंब प्रखरू।

सांभाळणें श्रीशक्त्या!   ।। ।।१०।।

   

मरकतलेलें षड्गुणैश्वर्य।

झुंबरेल विभूति-निश्रेय।

महेशितांचे परमश्रेय।

लोकेश्वर व्यक्तवतील!  ।। ।।११।।

   

सप्त्तारका गगनांतल्या।

बिंबद्वयीं प्रादुर्भवल्या।

चौ गो देहीं धूपल्या।

गगनारूढल्या पहा पुन्हा   ।। ं।।१२।।

   

हा गैनीनाथाचा नेत्रात्सव।

श्रीसंहितेचा अवंती दृग्भाव।

नवरसांचा दशमोद्भव।

चाखा हें रसलालित्य!   ।। ।।१३।।

   

मेघधारांची गुणा संख्या एक।

विद्युल्लतेची झेला प्रकाश फेक।

अनाहताचा पंथवा उत्सेक।

आज्ञापीठीं  ।। ।।१४।।

   

दोन डोळुल्यांत एक दृष्टी।

दोन पाऊलांत एका गति।

दोन चित्रांत एक उद््गीथी।

समय कौलशास्त्र   ।। ।।१५।।

   

श्रीमन् महासरस्वती।

श्रीसंहिता तत्त्व विशेष व्याकृति।

येथ उभयपाद संवादती।

श्रीविद्येचे!   ।। ।।१६।।

   

कौलास समयवीन।

बहिर्मुखास आंतरवीन।      प `मी चौरंगीनाथ`!ब

`नाथ'द्वयांस मत्यवीन।

आदिराज मी!   ।। ।।१७।।

   

बिंदू, प्रतिबिंदू, उद्बिंदू।

उद्वृत्तांत स्त्रवे क्षीरसिंधू।

त्या क्षीरधारेचा महानादू।

`हुं्'कारला येथें!   ।। ।।१८।।

   

आंतर् बहिर् समविण्यास।

अवतार माझा ओळखलास।

आदिसुधेचा पूर्णकलश।

रितणार येथें!  ।। ।।१९।।

   

श्रीकस्तुरीनें कुंदलेंलें कुहर।

श्रीमाधवीनें फुलविलेला बहर।

श्रीजलानें खुलविलेला मोहर।

तुम्हांसाठीं आणिला!   ।। ।।२०।।

   

षड्रस पक्वान्नांचीं सुवर्णपात्रें।

षोडश कलांनीं सौदर्यलेले चिन्महागात्र।

चौ-गो-नाथांनीं नक्षत्रलेंलें नीलछत्र।

उभविलें आज येथें!   ।। ।।२१।।

   

देखलेंका येथलें चैतन्ययंत्र।

जाणलें का तेथले मूलहेतमंत्र।

आहुतियलेंका आमुचें सौभाग्यसत्र।

सर्वस्वाज्य समर्पुनी!   ।। ।।२२।।

   

यजमान तूं, यजमान ते।

या यज्ञमंडपीं आणिले पुरोहितें।

महापशु मारिले! त्रिशूलदंतें।

``नाथसूय श्रीमख हा!''  ।। ।।२३।।

   

येथला स्थाणु मूलाधार।

येथलें आज्य त्रिदेह विस्तार।

येथलें शेषान्न तांबूलसंभार।

सारस्वत श्री खंड हें   ।। ।।२४।।

   

केडता हा क्षण उदेला!।

जेथ महापूजा महोत्सव प्रकर्षला।

आणि महाकारण हा सिन्नला।

तांबूलरसें   ।। ।।२५।।

   

केडता हा भाव आकारला।

`सोहं' माचा मातृभाव पान्हवला।

अष्टपर्वतांचा मृतिदेह जान्हवला।

स्थूलमात्र संतोषनाथ-ले!   ।। ।।२६।।

   

षण् नाथमुद्रेंत अवतरली प्रभविष्णुता।

संन्यासधर्म शरणला श्रीसंता।

ब्रम्हविद्येस लाजविणार भक्तिसुखकथा।

कौलसमयाद्वैत फुलणार येथें!   ।। ।।२७।।

   

येथिंचें उपासनाशास्त्र।

नेणिजे ब्रम्हशूद्र,पात्रापात्र।

येथ डोळसलेली निष्ठामात्र।

मणिसोपान मुक्तिशैला!   ।। ।।२८।।

   

प्रज्ञेस निष्ठवानिष्ठेस नेत्रवा।

क्षत्रास ब्रम्हवा ,ब्रम्हास क्षत्रवा।

तंत्रास मंत्रवा, मंत्रास तंत्रवा।

सुलभोपासना ही!   ।। ।।२९।।

   

आज वर्षती सुधाधारा।

आणि हषविलें महेश्वरा।

तुलसीदल स्पर्शविलें महागारा।

ब्रम्हपदिंच्या   ।। ।।३०।।

 

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