उन्मनी वाङमय

श्लोक २१ ते २७

आमुच्याशीं करणें अंगलट।

जणुं कीं अनुभविणें अंगारभेट।

आमुचा मुक्काम स्मशान पेठ।

आमुचा वास्तु शून्याकार!।। ।।२१।।    

 

माझ्या अतिथीस इंद्रपद सदैव।

माझ्या आश्रितांस तेजोविश्ववैभव।

माझ्या सेवकास सिंहासनीं ठाव!।

स्थिर संचार ओळखा माझा!।। ।।२२।।    

 

तीन पाऊलीं आमुची गती।

चतुर्थिच्या महाकारणीं आंमुची स्थिति।

श्रीमधुविद्येंत महासंगति।

इतस्ततलेल्या तत्त्वसूत्रांची!।। ।।२३।।    

 

विद्यया, श्रद्धया, चोपनिषदा।

स्वीकरी ही श्रीसंपदा!।

जीवसखे! वासवी विद्या ही अन्नदा।

येथ सहस्रदळली!।। ।।२४।।    

 

स्मृति हें वृत्तिज्ञानाचें स्वरूप।

मूर्ति हा मनन मृत्तिकेचा स्तूप।

स्फूर्ति हा गो-राखलेला धूप।

येथ उदो! उदोला!।। ।।२५।।    

 

अध्युष्ट-भूमि आज लहरली।

आंतर व्योम जान्हवी तटस्थली।

श्रीमहाशून्यवृत्ति सलीलली।

स्वस्मि! स्वसि! स्वस्ति! भानें!।। ।।२६।। संध्याकाळी ०९.०७

 

स्वस्तिश्रिये! स्वस्तिश्रिये! कोलांहलकारिणि!।

स्वस्तिश्रिये! स्वस्तिश्रिये! हालाहलपानी!

अन्नादे! सुयवसि श्रीमहन्नाम्नि।

आद्यवतंसिनि! स्वस्तिवटेश्वरि!।। ।।२७।। संध्याकाळी ०९.१५

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