उन्मनी वाङमय

७ एप्रिल १९३९

७ एप्रिल: 

एकूण श्लोक: १३

 

तत्त्वायामि ब्रह्मणा वंदेमान:  ।।

तदाशांS सो यजमानो हविर्भि:।

अहेSमानो वरुणेह बोध्युरुं शसमान 

आय प्रमोषी: ।।

 

रात्रौ ०९.४५

 

आम्ही प्रार्थितों परावियांचीं सुखें।

आशीर्मात्र उद्गार आमुच्या मुखें।

कर्तव्य आमुचें कल्पनातीत कौतुकें।

व्यक्तावस्थेंत आलेखिणें ।।          ।।१।।    

 

शुन:शेपांची ही सुवर्णऋचा।

अवधूत गुह्यांची कीं संकेतवाचा।

दिव्यश्री सौभाग्यांची नि:शब्द यां चा ।

महाविधान वा ‘नाथनाचें’ ।।          ।।२।।

 

रात्रौ ०९.५५

   

तुम्हांवरी उभवीत छत्र।

सदैव राबे हा अव्यक्त हस्त!।

सौरभ कोशांना उधळीत।

समीर नांदे डोळयांआड ।।          ।।३।।

   

मातृगर्भ कोणा न कळतां।

पुत्ररत्नाची अयोनिज सिद्धता।

इच्छितें प्रकटविणारी कल्पलता।

अज्ञातदेहा फलदर्शिनी!  ।।          ।।४।।

   

स्वप्नहस्त पालवीत बोलावूं।

स्वरूपस्थान स्फूर्तिशब्दें ओळखवूं।

आंतरिक विकासास स्थूल स्पष्टवूं।

आदेश उच्चरू मत्स्यश्रीचा!   ।।          ।।५।।

   

राखेंतुन वोपू प्रलयांगार।

सुधाबिंदूंत समर्पूं हालाहल विषार।

स्व-स्व गुहेंत अनुभववूं दशदिक् संचार।

केंद्रांत कळसवूं वर्तुल ।।       ।।६।।

   

अल्पसंख्य सहजसिद्ध बीजांत।

नांदवूं जीवनाचे रहस्यार्थ।

सामवूं कीं साग्र सारस्वत।

अठ्ठावीस ज्वलंताक्षरीं ।।            ।।७।।

   

रात्रौ १०.३९

 

नादमागोशीत श्रुतीनें चालावें।

स्वस्वरूप न्याहाळीत अंत:चक्षूनें जागावें।

गुरूगाउलीकडे जीववत्सें रांगावें।

कळला आदेश वळवावा! ।।            ।।८।।

 

रात्रौ १०.४५

   

‘आदेश’ शब्दीं चतुर्वेद स्थूलले।

‘अल्लख’ नादीं शास्त्रार्थ मूलले।

अग्निकाष्ठीं सौभाग्यभाव गोलाकारले।

रक्षेंत संरक्षा स्वरूपली!  ।।        ।।९।।

   

आम्ही शब्दवितो तुमचे प्रश्न।

साक्षात् आशी आमुचें जें कृतकमौन।

अमूर्त अदृष्ट आमुचें आदान।

स्वीकृत द्रव्यांचें  ।।            ।।१०।।

   

माझ्या झोळींत देखशील साठिवलेलें।

व्यक्त हस्तें जेव्हां जें जें मी झिडकारिलें।

सहज विधान हें स्वरूपैक्य गुजांतलें।

विसर्ग जेथ आदान  ।।             ।।११।।

   

आम्ही दिलें तेतुकें घेतलें।

आम्ही घेतलें तें वमनवत् त्यागिलें।

डावें उजवें उफराटलें।

समोरा समोर येतांच ।।            ।।१२।।

 

रात्रौ ११.०७

 

रात्रौ ११.१०

 

महद्भाग्यांचें माहेरघर।

कुशलित संस्कारांचा सुखसंसार।

विभवस्थ वैराज्याचा वितान विस्तार।

मत्स्य कृपया तुला! तुम्हा!  ।।        ।।१३।।

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