१ जुलै:
एकूण श्लोक: ५
रात्रौ १०.१५
‘रं’ ‘हं’ ‘शं’ ‘क’ इति चतुष्कल श्रीविभूतिकाय।
जेथ शबल संचितांचे हिमालय रेणुप्राय।
अनारब्धांचे कोटिकर्म-निकाय
प्रारब्धती, क्रियमाणती।। ।।१।।
फुलाफुलांतिल उत्थानले केसर।
मोत्या मोत्यांतिल उचंबळलें तेजोनीर।
समुद्री समुद्रींचें फेसाळलें नीलक्षीर।
विभूतिकाय हा श्रीमत्स्यस्पृष्ट!।। ।।२।।
चर्यानंदल्या ‘नाथस्वं’ ची पूर्णाहुती।
मूळबीजांची फुलफळलेली व्याकृती।
जीव-तान्हुल्यांची कैलासलेली अवधूतसंस्कृती।
विभूतिकायांत डोळवा!।। ।।३।।
कामगिरी, पूर्णगिरी हें प्राथमिक पीठ द्वय।
जालंधर, ओड्ड्यणं द्वंद्व हें द्वितीय।
चतुष्कोणाचें या मध्यकेंद्र भव्य।
‘विभूतिकाय’ हें रहस्य-लिंग! ।। ।।४।।
शुक्लाध्यस्तल्या वृत्तिदेवीचें गर्भागार।
श्यामरंगल्या सावित्रीचा सहजाविष्कार।
शिवस्व-भानांचा कोसळला धुवाधार।
प्रतिपच्चैतन्य पौर्णिमलें!।। ।।५।।