८ जुलै
एकूण श्लोक: ३
श्रीकायांत ओळखावी सुषमा।
सजातीय समनस्कांचा प्रकट भूमा।
जेथ समन्वयल्या प्रवृत्ती विषमा।
श्रीतत्त्वाच्या कल्पन योगें।। ।। १ ।।
श्रीतत्त्वाचा श्रियाळ निक्षेप।
र्हीं सत्त्याचें प्रियाळ प्रतीक।
शं बीजाचा वेल्हाळ वैराजक।
प्रफुल्लाकारले वियत्कायकोशीं।। ।। २ ।।
‘श्रीश्च’ते लक्ष्मीश्च पल्यावहो रात्रे पार्श्वे नक्षत्राणी रूपम्।
अश्विनौ व्यात्तम्।
वियत्कायांत विरोध एकवटले।
वियत्कायांत चित्त प्रत्यय वस्त्वाकारले।
वियत्कायांत नाथहेतू श्रीकूटस्थले।
स्वाराज्य वैराजलें स्वभावत:।। ।। ३ ।।