उन्मनी वाङमय

१४ जुलै १९३९

१४ जुलै 

एकूण श्लोक: ८

 

अष्टादश हस्तनिक्षेपकृपाळ।

अष्टादश दृष्टिसंकेत स्नेहाळ।

अष्टादश वाक्वर्षाव वेल्हाळ।

ब्रह्ममुखें साक्षात् सिद्धले! ।।                ।।१।।    

 

नि. माउलिचें बीजपाद प्रतीक।

ज्ञानैश्वर्याचें महानैजस्व सन्मुख।

नाथक्रियेंत समन्वयला मूलव्यतिरेक।

ध्येयमात्र चक्षुराकारलें  ।।              ।।२।।    

 

अतिथिगुहेंतिल निरंजित भानबिंब।

बीजलिंगाचें प्रकटन स्वयंभ।

अभिनव विद्यायुगाचा आद्यप्रारंभ।

सिद्धगुज हे सहजस्वांत ओळखूं ।।          ।।३।।    

 

निवृत्तभान स्वयं सहस्रारलें।

प्रथमबीज बहु-प्रकारलें।

श्यामारूणबिंब कीं किरणलें।

वृत्तिज्ञतेच्या परिघबिंदूंत ।।          ।।४।।    

 

चतुष्कोन सजले रत्नालंकृत।

त्रिबिंदु परिघले आज्ञापीठांत

नवसिंधु उचंबळले भूमाकेंद्रांत।

सुवर्ण-मुद्रा स्वरूपली ।।          ।।५।।    

 

लवथवले जीर्ण जीर्ण संस्कार।

कोसळले शीर्ण शीर्ण प्राकार।

मालवले दीर्ण दीर्ण आविष्कार।

नाथक्रिया ही निवृत्तिची ।।            ।।६।।    

 

उदित सुरजाच्या कोटिकला।

प्रफुल्ल गुलाबांच्या माळल्या माला।

व्याकृतल्या निवृत्तिस्थित बीजबाला।

नवयुगतेज दृक्विषयलें  ।।                ।।७।।    

 

कणाकणांत सामावे सुवर्णविश्व।

वृत्तिवृत्तिंत घनवटे श्रीमद्भाव।

बिंदुबिंदुंत प्रकटला आशीर्मेघवर्षाव।

प्रसीदय श्रीनारायरणस्वरूप ।।          ।।८।।    

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