उन्मनी वाङमय

२३ सप्टेंबर १९३८

२३ सप्टेंबर: 

एकूण श्लोक २०

 

स्वस्तिश्रिये! स्वस्तिश्रिये! शाबरी!।

थिजलेली परा वैखरी।

वृंदावनींची मध्यमंजरी।

आली येथें  ।। ।।१।।

 

रंग तिचा हिरवा गार।

मंत्रदेह तिचा आधार।

तिचा कारणतत्त्व विस्तार।

नाथगुहा ही!   ।। ।।२।।

 

तुलसीपत्र ॐकारलें।

क्षणदेह संवत्सरले।

शब्दबीज आदिनाथलें।

श्रुती सदेहली  ।। ।।३।।

 

जय जय! गिरनारमृत्तिके।

महाकारणाच्या प्राणसखे।

आदितत्त्व तेथ लुकलुके।

परम व्योमीं  ।। ।।४।।

 

मृत्तिका लक्ष्मीचा अवतार।

आलिंगिती द्वादश मल्हार।

कुशला मांगल्याची संततधार।

वंदी लोकेश्वरां  ।। ।।५।।

 

नाद अनुनाद प्रतिनाद।

वाद अनुवाद प्रतिवाद।

वाद-नाद-संवाद।

संदेश-देह हा  ।। ।।६।।

 

जयजय! संदेश गुरो!।

श्रीकुशींच्या तेजगर्भो।

नवश्रुतीच्या प्रारंभो।

वेदगुह्या!   ।। ।।७।।

 

येथ फेंसाळली स्फूर्ती।

येथ लकाकली अलखदीप्ती।

येथ निरंजनली जीवपंक्ती।

कारण-श्रेणीची  ।। ।।८।।

 

श्रीविद्येचे बुद् बुद।

चौभंगोनी उठविती श्रुतिपडसाद।

महानंद घट अभेद्य।

येथ रितविती   ।। ।।९।।

 

श्रीपीठींच्या सभासदा।

पंचमकोशींच्या आनंदा।

विश्वसहस्त्रार-सुगंधा।

पहुड येथें   ।। ।।१०।।

 

स्थूल माझें श्वानावलें।

नेत्र माझें ध्यानावले।

गात्र माझें गानावलें।

आत्मतत्त्व आदिलें श्रीनादें  ।। ।।११।।

 

कोश कोश विंचरले।

पंख पंख संचरले।

विश्व विश्व भास्स्वरलें।

मृत्तिका-गंधे  ।।          ।।१२।।

 

दूर सुदूर अनंताचें पैल।

निकट निकट गिरनार शैल।

तेथल्या मृत्तिकेंत स्नान सचैल।

घडलें त्रिदेहातें ।।         ।।१३।।

 

स्थूलद्रव्यें गौरांगविलीं।

सूक्ष्मतत्त्वें सौरभविलीं।

कारणदेहें महाचेतविलीं।

या नांव साक्षात्कृति   ।। ।।१४।।

 

पवनवीन येथिलें व्योमं।

स्वर्णवीन येथिलें धाम।

सार्थकवीन घेतलें नाम।

संदेशगुह्य हें  ।।          ।।१५।।

 

कालसरितेच्या प्रवाहीं।

दिग्नागांच्या अष्टदेहीं।

महाकारणाच्या वितुळलेल्या स्नेहीं।

जीवज्योती पेटल्या  ।।    ।।१६।।

 

त्या जीवज्योतींच्या पंक्ती।

माझ्या श्रीजान्हवींत तरंगती।

परि मूलादित्य परंज्योती।

श्रीभूप! श्रीनाथ!  ।।    ।।१७।।

 

व्यक्तांत दाखवीन अलक्ष्य।

तयाचे तेजोमंत्र संरक्ष।

मृत्तिकेंत बिंबली साक्ष।

साक्षित्त्वें साक्षात् कुरू   ।। ।।१८।।

 

वस्तुप्रतीती हें आत्मदर्शन।

देहभाव हेंचि महाकारण।

विश्व हेंचि आदिनाथन।

येथ श्रीविद्यापीठीं   ।।          ।।१९।।

 

येथ श्रीपीठ कैलासलें।

आमुचें मठ-व्योम निरंजनलें।

आमुचें गुहातीत साक्षात् श्रुतलें।

स्वस्तिश्रिये! स्वस्तिश्रिये! ।। ।।२०।।

 

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