उन्मनी वाङमय

१३ ऑक्टोबर १९३८

१३ ऑक्टोबर:

एकूण श्लोक: २७

 

संध्याकाळी ०७.००

 

श्री त्रयोदश संचर:। अनिरुत्तः।

स्तोमः `हुं'कारः।

आज निरुक्तणार स्वस्तिकारः।

श्रीसंवितेंत   ।। ।।१।।

   

स्वस्तिश्रियेः श्रीसंवित् महानित्ये।

काल-अकाल विकालांत: सत्ये।

भूमध्य - पाउकावरिच्या कैटभ नृत्ये!।

नादवी संविद रहस्य   ।। ।।२।।

  

निर्लहरलेल्या सलिलांगी।

निष्पवनलेल्या व्योम भागीं।

संज्ञानलेल्या वृत्तिगर्भी।

संविदुदय  ।। ।।३।।

   

न व्युत्पन्नतेचा आविष्कार।

न विधि विधानांचा द्रव्यसंस्कार।

न सिद्धिसाधनेचा पुरस्कार।

संविदुदय हा!   ।। ।।४।।

   

संविद् गंध संचरे स्वस्ति भाव भुवनीं।

संविद्रूप भास्वरे कुशल ‘हुं’ गगनी।

संविद्स्पर्श प्रकटे संज्ञानित उन्मनीं।

उदय कीं अगस्ति बिंबाचा  ।। ।।५।।

   

जय अगस्ते! चुंबु दे तव ललित किरण।

जय अगस्ते! आलेषूं दे तव संकाश परिमाणू।

जय अगस्ते! शीर्षवूं दे तव श्रीपाद रेणू।

अगस्ति पूजन हें अभूतपूर्व ।। ।।६।।

   

संविद् लेखेची हिरकणी।

स्थिरवा अंतःकुहराच्या कोंदणी।

नवान्न प्रदावक चिंतामणी।

अगस्ति दर्शन हें  ।। ।।७।।

   

संवित् स्फुरणाची दीपशिखा।

उदेली, यत एव मालवूनी टाका।

चंद्र सूर्य तेजांचा कणु ठिपका।

महासंवर्त तेज हें  ।। ।।८।।

   

अगस्तिभान कंठवील वृत्ति समुद्र।

संवित्सूर्य मठवील `सोहंमा' नाद।

संविद्रेखा पृष्ठवील महानुभाव केंद्र।

प्रसरशीला संवित् स्थिति  ।। ।।९।।

   

ऊर्ध्व ऊर्ध्व नभीं खुडिलें हें पुष्प।

दूरदूर भूदेशीं घटिला हा तारक स्पर्श।

भव्य भव्य गिरनारीं चमकलें मौक्तिक दृश्य।

तळ समुद्र व्योमावला  ।। ।।१०।।

 

संविदनुभवाचा हा कवडसा।

नकळ नाचे कोठें, केउता कैसा।

विश्व प्रांगणीच्या त्या तेजो लास्या।

न्याहळूं फुटेल्या नेत्रीं  ।। ।।११।।

   

संवित् प्रभेची नाजुकी झाक।

विहरे जेथ संव्यक्तला संकल्प।

नानात्व स्फुरण वल्लीची राख।

भालीं अगस्ति वृत्तीच्या  ।। ।।१२।।

   

जड-विश्व हें संवित कलेची कोजळी।

श्रीमधुविद्या संवित्सुखांची ओंजळी।

कीं संवित् कृपेची कटाक्षावली।

मानव्योद्धार यद्धेतुः!  ।। ।।१३।।

   

अमानव पुरुष देवयान पांथिक।

श्रिया दिष्ट करिती संविद् बीजाची फेक।

यत्र साक्षात् महाश्रीस्फूर्ति प्रेरक।

नेतर कर्तृत्वा वाव येथें!   ।। ।।१४।।

   

यदृच्छेची सुवर्णांगुलिका।

कदा, कवण भालीं संवित् सौभाग्य तिलका।

लावी, लाविला की लावील, त्या कौतुका।

नेणूं आम्ही पूर्णतया  ।। ।।१५।।

   

कालचक्रांची सहस्र संवत्सरें।

मानव्य कुलांचीं सहस्र प्रकारें।

अवधूत अंशांची सहस्र संचारे।

नेणती संवित् कौतुका  ।। ।।१६।।

   

क्वचित्, कदाचित् केनचित् लभ्या।

आमुष्मिकी सा महासंवित् प्रभा।

परोवरीयसी परंवल्लभा।

पराद् अतिपरा परंज्यातिः  ।।    ।।१७।।

   

‘अगस्ति’ हे परप्रतीक।

कलहंस भावाचा शुक्लपंख।

महानंदाचा कलाहरिकव।

स्थूलमात्र लक्षण निर्देश  ।। ।।१८।।

   

देवयान पंथीच्या तारके।

श्रीसंहिता वनिंच्या महालतिके!।

संविद्रुपिणि! अगस्ति प्रभे! बालांबिकें!

तुझा हा प्रथमाविष्कार   ।। ।।१९।।

   

आद्य दृष्टा बिजेची कोर।

आद्य-तुष्ट जीव चिति चकोर।

अतिकारण रंगीं नर्तला कीं मोर।

संविद् नुपुर नादला!  ।। ।।२०।।

 

महा श्री चितिचें स्वभाव स्पंदन।

महा श्री चितिचें स्वकीय दिधीतन।

महा श्री चितिचे कैलासलें संश्रवण।

अगस्ति बिंब हे!  ।। ।।२१।।

   

येथ अपमानलें अवधूत भान।

येथ अतिध्यानलें महामहेश संध्यान।

येथ श्री संहितेचें प्राप्तलें महामौन।

संविद्वैभव श्रुतुरीय!  ।। ।।२२।।

   

ब्राह्मीं अवस्थेचा  धवलगिरी।

काळवंडला, कोसळला, संविदग्रीं।

ऐशी सर्वधैव अविलोच्य उजरी।

अगस्ति प्रभेची   ।। ।।२३।।

   

समाधलेल्या महेशांचे चिरे।

रत्न खचितले संकल्पन संस्कारें।

शोधुनी गगनीं श्री संहिता स्वरें।

प्रतिष्ठिली संवित् सुभगा!    ।।      ।।२४।।

   

महानुभावाचें गर्भागार।

संज्ञानाचें सुवर्णद्वार।

सभास्थल संश्रवणाकार।

संविद् सुभगेच्या राऊळीं    ।।      ।।२५।।

   

निश्चत्वु देहतेचा विलास भोग।

स्वकीय स्व-स्व-स्वसुखाचा उदेला कोंब।

अवयव चितींचा निरंश प्रक्षोभ।

अगस्ति स्वस्तिक हें!     ।। ।।२६।।

   

जय श्रिये! महाज्वाले! स्वस्तिकाकृति  ।

जय श्रिये! अगस्तिप्रभे! ‘गो’ ‘म’ नेत्र द्वयवर्तिनि।

चौ पीठस्थें! ब्रह्मदेहाकर्षिणि।

अतीतते! संवित् श्रिये!   ।।       ।।२७।।

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