उन्मनी वाङमय

११ ऑक्टोबर १९३८

११ ऑक्टोबर:

एकूण श्लोक:२८

 

संध्याकाळी ०६.१५ 

 

उदेल्या नवतुष्टि जेथ ती संवेदनश्रेणी।

जेथ विकारली प्रधानरूपिणी।

महतांत मेळवूं दशसप्तमृन्मणी।

उभारी मोहजाल हें  ।। ।।१।।    

 

अंभस् सलील हें प्रथम द्वय।

कालौघवृष्टि हें द्वितीयद्वय।

पार, सुपार, पारपार तृतीय त्रय।

अनुत्तम, उत्तमांभस्  ।। ।।२।।    

 

संवेदन पुरीची ही नव गोपुरें।

आध्यात्मिक प्राकृतिक लेंकरें।

मायामोहिनीचीं माळलेलीं मखरें।

लत्ताप्रयोगें धुळवूं आम्हीं!।। ।।३।।    

 

वृत्तिसिद्धि: प्रकाश लिंगात्।

योगसिद्धि: वृत्तिनिरोधितस्वरूपावस्थानात्।

श्रीऋद्धि: वृत्तिविनयज पदपदार्थभोगात्।

सौदर्य दर्शनेषु मध्यसूत्रमिदम्  ।। ।।४।।    

 

संवेदन, संकलन, संश्रवण।

विद्युत्कला, चांद्रमसी, तेजवारूण।

अनुक्रमें ओळखा पंथनाथ देवयान। संध्याकाळी ०६.३४

तत्त्वगभीर श्रीशैल हें  ।। ।।५।।    

 

श्येनवत् जीवचैतन्याचा अनुभाव।

एकसमयें दर्शवी हास्य आंसव।

द्वैधल्या चितिचित्ताचा स्वभाव।

द्वंद्वोत्थान हें  ।। ।।६।।    

 

लोहिताजेची किमया प्रमत्त।

उभवी मोहमुद्गर निष्तंत्र। 

सृष्टिप्रलय हे कुतुकविवर्त।

जडवृत्तिकोशी उमलले जे।। ।।७।।    

 

द्वंद्वोत्थान हेंच कर्मबंधन।

संस्कार संततिचें गर्भधारण।

श्रीस्वस्वरूपाचें आवरण।

धाराप्रवाहीं उत्थान तें  ।। ।।८।।    

 

अविद्या अस्मिता रागद्वेष।

आणि पंचमाकार जो अभिनिवेश।

इति वैकारिक महापाश।

प्रादुर्भवे द्वंद्वोत्थानीं।। ।।९।।    

 

दोन पाकळयांचें मनोज्ञ मुकुल।

दोन शकलांचे शिलाखंड विशाल।

दुवलयलंेलें जाणीव-भाल।

जीवमोहन हें  ।।।।१०।।

 

शब्दमात्र होतो अर्थार्धज्ञापक। श्वासमात्र होतो ना सार्धव्यापक। बिंबदेह अर्धतेजख्यापक। चंद्र सूर्यांचा ।। ।।११।। विधानासि अतएव प्रतिधान। उभयांगें कवटाळी तें संधान। पुनराविष्करे अभिनव विधान। संधान तें।। ।।१२।। विधान प्रतिधान संधान। यांचें अनवरत पौन:पुन्य। विवर्तानुभूतीचें अधिष्ठान। प्रस्फुरे तेथें ।। ।।१३।। संध्याकाळी ०७.०२ अंशचितिचीं भानें उन्मेषलीं। संवेदनेच्या भुलभुलाइंर्त प्रवेशलीं। निर्गतिद्वारयंत्रे निमेषलीं। चक्रव्यूढ जीवगति ।। ।।१४।। द्वंद्वोन्मेषांत अस्मितेचा क्षणसंचार। प्रतिबिंबवी अनुततलेली वृत्तिधार। वंचवी कीं अस्मिता जणुं मूलाधार। अन् प्रतीति-हेतु ।। ।।१५।। परि ‘निरस्मि’ भावांत उगमे प्रतीती। जी संज्ञानवी विशुद्धस्फूर्ती। आणि जणुं प्राणप्रतिष्ठवी महामूर्ती। कैवल्यचितिची ।। ।।१६।। संध्याकाळी ०७.१८ “गंभीरनद हा ‘शं’ स्वाहाकार। महाश्रीधर्मसंस्थापनाय अवतार। महाजीवनाचा नूतन भाष्यकार।” संध्याकाळी ०७.२२ तत्-शब्द येथलें संवेदन ।। ।।१७।। ‘त्वं’ शब्द येथलें संकलन। ‘असि’ पद येथलें संश्रवण। ऐसें महावाक्य पुनरादेशले! ।। ।।१८।। संध्याकाळी ०७.२६ मधुविद्या ही शांभवी। श्रुतिकला कीं अभिनवी। बहरली जणुं नित्य-माधवी। व्योमतटींची सदाफुली!।। ।।१९।। आदिश्रुतीची ललितवीणा। प्रतिध्वानील महाकारणा। उत्तिष्ठवील, जागरवील थिजल्या अल्पचेतना। जीवकोशांत गूढलेल्या ।। ।।२०।।

 

संध्याकाळी ०७.३२ कारण महाकारणाच्या पाउकावरी। श्री ‘शं’ बीज चरणवूं ‘र्‍हीं’ ‘क्लीं’ स्वरीं। मग न्याहाळूं जीवचैतन्याची उजरी। धवलगिरीचें दर्शन तें! ।। ।।२१।। एकवीस तत्त्वांचें हें महामानस। आज शब्दलें, केला ‘शं’ बीजन्यास। संध्याकाळी ०७.४० परिघविला अनाहताचा व्यास। केंद्र केंद्र स्वयंचक्रलें! ।। ।।२२।। आद्यपाद येथ विद्युतले!। षडाचार्य येथ सन्मुखले!। विश्वभान षडैश्वर्यलें!। विभुत्वलें श्रीवैराज्य!।। ।।२३।। संध्याकाळी ०७.४८ सामरस्य सहस्त्रशास्त्रांचें। संपुटक सहस्त्र ब्रम्हास्त्रांचें। कोशगृह कोटिदेहवस्त्रांचें। श्रीसंहिता ही!।। ।।२४।। सत्व वैराग्य ऐश्वर्य। असत्व अविराग अनैश्वर्य। आणि अज्ञान ऐसे हे सप्त्कार्य। रुपतेचें लोहितेच्या।। ।।२५।। संज्ञानित ज्ञानाचा अंगार। भस्मवील त्रैगुण्य प्राकार। शमवील द्वंद्वोत्थान विकार। अस्मितानद आटवोनी।। ।।२६।। ‘संज्ञानान्मुक्ति:’ हें सुवर्णसूत्र। सफळवील अद्यतन अध्यात्मशास्त्र। ‘पतनात् त्रायते’ इति यत्पात्र। विलसेल हें मधुविद्येचें!।। ।।२७।। संध्याकाळी ०८.१७ परात्पर कायेंत प्रवेशूं आम्ही। चतु:शरीरपीठांचे चतुर्वंद्य स्वामी!। भूर्भुव:सुवर् सम्राट सार्वभौमी। ब्रम्हसूत्र शारीरवूं!।। ।।२८।।

 

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