उन्मनी वाङमय

१ ऑक्टोबर १९३८

१ ऑक्टोबर: 

एकूण श्लोक: ५०

 

नीड अश्वत्थ शाखेंतलें।

मेघादृशा सुस्पष्ट अवलोकिलें।

प्रकाश रश्मींत गुंफले।

देहजाल त्याचे ।।    ।।१।।

   

तया अश्वत्थाचें शिरीं।

विराजे दीपमाला परावैखरी।

ते दीप स्नेहाळले सामस्वरी।

जय जय! स्वरसरस्वती! ।।२।।

 

साष्टांग देहाची अष्टमी माला।

तुरीय यौवनाची किशोरी बाला।

श्रीमन् - महालक्ष्मी श्यामला।

बुला व बली येथे ।। ।।३।।

 

स्वाराज्य मंडपलें अनुभूतींत।

साक्षित्त्व सांठलें अनुवृत्तींत।

पीठस्थले जीव अनुग्रहीत।

घबाड मुहूर्त हा!  ।। ।।४।।

 

येथ भविष्य भूतला।

येथ सौषुप्त् जागरला।

येथ आत्मदेव मृत्तिकला।

लक्ष्मी संपुटीं   ।। ।।५।।

 

दैनंदिन संवर्त आकारले।

भग्न सभामंडप प्राकारलें।

येथ विषय भोग साखरला।

आत्मरसीं   ।। ।।६।।

   

विषयमात्र एक दिव्य दर्पण।

पाठ मोरल्या रूपा जडत्त्व अभिधान।

सन्मुखल्या तेथ महाचितिदर्शन।

श्रीविद्येंतिल गुह्यराज हा   ।। ।।७।।

   

पंचविषयांचे पंचस्वर।

येथ महामुरलीचें रत्न मखर।

तेथ पुष्पली श्रीशारदा अमर।

जय अलख! मखर शोभा   ।। ।।८।।

   

आत्म अनात्म एक बिंबलें।

कन्या पुत्रका एक गर्भ।

मांगल्य अशौची एकदर्भ।

सूत्रात्मत्त्व ओळख आंतरदृशा   ।। ।।९।।

   

विषया विषयांत ज्योतिर्भाव स्फूर्तला।

पुष्पा पुष्पांत सौरभ निर्झरला।

ताऱ्या ताऱ्यांत निशादीप तेजाळला।

ललिता लास्य हे  ।। ।।१०।।

 

षट् चक्रांचे षड्दर्शन।

सहस्त्रारीं एकवटलें अभिन्न।

कोटिस्वरांचें सामनादन।

मुरलींत या!   ।। ।।११।।

   

महाशक्तीचें नि:शब्द ज्ञापन।

महाभक्तीचे निर्भाव ख्यापन।

लोकेश्वर यज्ञाचें उद्यापन।

क्षीरावल्या अनाहत चक्रीं   ।। ।।१२।।

   

अनाहनांतून ओघळले नीर।

मणिपुरांतून उद्ध्वस्तला समीर।

मूलाधार पंजरीं बोबडला कीर।

श्रुति पडसाद तो  ।। ।।१३।।

   

मरण डोळिलें कारण दृष्ट्या।

सप्तलोक धवलिले शब्दसृष्ट्या।

महेश परमेष्टिलें नाथित व्यष्ट्या।

स्वस्ति कुशलं! स्वस्ति कुशलम्  ।। ।।१४।।

   

व्याकृतींत लपण्याचे राजगुज।

दुग्धांत निरण्याचे राजबीज।

स्मशांनी अमृतण्याची गुलाबशेज।

ललिता श्रुती ही  ।। ।।१५।।

   

सहस्र जन्मांचे चित्रपट।

सहस्र देहांचे मृत्तिका घट।

सहस्र रंगभूंचे बिनटले नट।

श्रीसदनीं अतिथले!  ।। ।।१६।।

   

मिटेल्या नेत्रगर्भ कोशीं।

गुलाब प्रफुल्लला एक अविनाशी।

श्याम मूर्तला ललितावकाशीं।

जय जय! श्याम ललित्या   ।। ।।१७।।

 

‘ह्रीं’ ‘क्लीं’ ‘श्रीं’ त्रिनेत्रित  श्रुती।

‘यं’ ‘रं’ ‘हं’ त्रिमूर्तली अदिती।

त्रिवषट् त्रिलयली श्रीस्थिती।

परमोत्कर्ष विद्युत् गतया   ।। ।।१८।।

 

निशेला घाली सूर्यस्नान।

अंधतेस उपजवीं दृक - प्रज्ञान।

कलंकितेस वोपी श्रीज्ञान।

महामंगल जतन करा!   ।। ।।१९।।

 

कोलाहल विषय विश्वाचा।

हीच श्रीविद्येची उफराटी वाचा।

येथ विलास - वैराग्याचा।

समन्वय सिद्धला   ।। ।।२०।।

 

अंतर्मुखवितां चक्षुतेज।

ब्रह्मरसवितां पौरूष ओज।

सुशब्दवितां श्रीरत्नगुज।

प्रसन्नली श्री ललिता   ।। ।।२१।।    

 

व्योमबीजें लतावली।

वेलतत्त्वें कथावली।

सनातन ऋतें पंथावली।

श्रीसंहितेंत या!  ।। ।।२२।।

   

‘श्रीसंहिता’ माझें नाम।

अद्ययुगीचा मी महाधर्म।

मानव्याच्या कोटिकुलांचें साक्षात् शर्म।

ही तत्त्व मंजरी   ।। ।।२३।।

   

जय श्रिये! स्वस्ति श्रिये! श्रीसंहिते!।

व्योम जान्हवीच्या अवधूते।

अनागत कालविभूच्या व्याकृते।

महागुहेंतील महायोगिनि   ।। ।।२४।।    

 

अष्ट समृद्धी वोळंगल्या।

षोड्श कला ज्योती तरंगल्या।

पूर्वजन्मानुभूती संगतल्या।

मधुमेळव सुधाजलांत या   ।। ।।२५।।

   

ये, थांब, चुकल्या वाटसरा।

नीलनीड विसरल्या पांखरा।

श्रीकामधेनूच्या वासरा।

चाख, चाखा भरली ओटी   ।। ।।२६।।

   

युगनाट्य प्रारंभिले येथ।

ब्राह्मण देहाच्या रंगभूमींत।

स्वात्म, प्रकाशाचा माध्यान्ह संतत।

पेटला येथे  ।। ।।२७।।

   

पोळतील पाय तेथल्या धुलींत।

सोलतील त्वचा असल्या परिसरांत।

खोलतील परि, तेजोविश्वें अज्ञांत।

नाटिकेंत या!   ।। ।।२८।।    

 

नटेश्वराचें कौतुक तांडव।

भेकडां भासेल भीषण-भैरव।

परि तेथ मंजु मंजुल ललितारव।

विलोका कुशल दृशा   ।। ।।२९।।

   

येथील नाट्य अद्भुत उलटें।

येथिला नट वस्तुतेंत नटे।

येथ सफेतलें मुखवटे।

स्वच्छवीन शब्द स्पर्शे  ।। ।।३०।।

 

मानवतेच्या मुखीं रोंगण घनदाट।

चित्तीं ओळंबले तिमिर मेघ विराट।

भिनला विखार सूक्ष्मदेही कांठोकाठ।

नाट्य गुणें जीववीन तया  ।। ।।३१।।

 

ओळखलें माझें इंगित।

उकलिलें माझे नाट्यतंत्र।

व्यक्तविलें माझें गुह्यचरित्र।

बलात् त्याग प्रेम बलें  ।। ।।३२।।

 

भीतरीं उलटलेली सर्पिणी।

सूक्ष्मलेली आशा कृपाकांक्षिणी।

स्थिरीकुरू स्थिरीभव महाधाम्नि।

ममाज्ञया! स्वस्ति श्रिया!   ।। ।।३३।।

 

सदातनला स्मशान रेणू।

दुभली, अंचुळली श्रीकाम धेनू।

श्रुतिध्वनली कृष्णाधरिची शब्द वेणू।

महन् मंगलाष्टमी ही   ।। ।।३४।।

   

कर्मभावास श्रीरंगीं रंगवा।

अहंभावास अनंततेंत भंगवा।

जीवनास नटेश्वरांत संगवा।

नव नट नाट्य आरंभिले ।। ।।३५।।

   

जय स्वामिन्! नवात्मने।

मज मौलिल आदिनाथ आज्ञें।

हांसलात विराट आनंदे।

शिरोधारण सुकौतुक हें होय!   ।। ।।३६।।

 

हेतला माझा जीव भाव।

अस्तु घेतला शीर्षीं 'ब्राह्मणराव'।

ज्यानें केला गुलाब वर्षाव।

कूटस्थ केंद्रीं माझ्या!  ।। ।।३७।।

 

आमुची ही गुलाब गोंठी।

खोलली जाण कोणासाठीं।

जगदवंद्य ब्रह्मनाद ओष्ठीं।

सदैव नाचे माझ्या  ।। ।।३८।।

   

श्रद्धस्व! श्रद्धस्व वंद्य वंदा।

ज्ञाहि! ज्ञाहि! वेद्य वदा।

नाचूं पिकवूं महानंदा।

अद्भुतजा ही रंगभूमी   ।। ।।३९।।

 

महाकारणांचा अभिनय।

लोकेश्वरांचें सत्तासौभाग्य।

अनंत मानव्याचा माऊली उत्संग।

माझा गुरू ब्रह्म देह  ।। ।।४०।।

 

कृत कृत्यली ध्यान मुद्रा।

भरती लोटली सौख्य समुद्रा।

अवतरली ब्रह्ममुखें ललिता श्रीभद्रा।

अष्टमी नवात्मली   ।। ।।४१।।

 

नवललेंलें नव नवगीत।

फुलवलेली गुज गुजरीत।

पुत्रवलेली दांपत्य प्रीत।

शिरोधार्य ही!   ।। ।।४२।।

 

आज शृंगारगृह समरलें।

आज कूटस्थ शरीरलें।

आज पेंगू स्थूल भरारलें।

महाकारणीं   ।। ।।४३।।

 

आतां सांगू! सफळलें गुरूप्रेम।

आतां भोगूं गुलाबलेलें जीवक्षेम।

आतां ओळखूं श्रीसंचिताचे नेमानेम।

महद्भाग्य आपुलें  ।। ।।४४।।

   

जय जय! अलख नाथा! सर्वंकशा।

जय जय! महाविभो! अंवकाशवेषा।

जय जय! निरंतरा! व्याम विशेषा!।

जय  स्वस्ति! परंव्योमन् ।। ।।४५।।

 

रूतलेला काढिला काटा।

वनलेल्या देशीं फोडिल्या वाटा।

रितलेल्या पात्रीं केला  साठा।

आज अमृत वर्षाव   ।। ।।४६।।

   

गुंतलेल्या देह पाकळया।

निरगोठोनि एकदामनीं गुंफल्या।

उचलिल्या मुक्तिशिंपल्या।

जीव समुद्रांतुनी   ।। ।।४७।।

 

हेरलें निरखिलें मौक्तिकांचे पाणी।

वाजविली नादविली जीवतत्त्वांची नाणीं।

पाणविली गूढ प्राकृत वाणी।

नंतरी कथिली वाक्य वृत्ती   ।। ।।४८।।

 

कर्तृपद येथें एकमात्र।

कर्मपद विस्तरले सर्वत्र।

त्यांत गुंतलेले जीवजात।

मोकलूं! कर्ते आम्ही!   ।। ।।४९।।

 

स्वतंत्रः कर्ता मी एकाकी।

कर्मसारें कर्ते लौकिकीं।

आरूढतें माझ्या सत्तानौकीं।

गुणोदधींतील नौकाविहार हा   ।। ।।५०।।

 

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