उन्मनी वाङमय

`ऐतरेय-`बिंदू' स्थल सहस्त्रार मधुनि:स्यंदाचें। धूतपीठ हें नव्व्याण्णवावें! ।।

२५-१-४३

 

जयतु जयतु माता विश्वमांगल्यमूर्ति।

जयतु जयतु माता विश्वसामर्थ्यधात्री।

जयतु जयतु माता विश्वसंपत्प्रवृत्ति:।

जयतु जयतु माता विश्वसत्कार्यपूर्ति:  ।। ।।१।।    

 

नत्वा पवित्रमोंकारं।

तथा तस्या परांकलाम्।

जननीं आर्यमिश्राणां ।

ततो जयमुदीरयेत ।। ।।२।।    

 

३१-१-४३

 

एक शकुंत सुवर्णवटीं विराजला।

एक त्रस्रेणु कोटिकोटि विश्वरूपांत विस्तारला।

एक चित्कण प्रफुल्ल व्यक्ततेंत भास्स्वरला।

ऐक श्रियाळलेला 'दक्षिण' शब्द  ।। ।।१।।    

 

देहता व्यक्ततेची परिसीमा।

अत एव सगुणैश्वर्याची सौभाग्यसुषमा।

पराप्रीति ही स्थितप्रज्ञेची पौर्णिमा।

देह हाचि परमचिदोत्कर्ष!!!   ।। ।।२।।

   

 

स्वस्ति! स्वस्ति! नव्व्याण्णवे अवधूत श्रिये!।

प्रणवहेतवे। परंस्वे! प्रणिधानप्रक्रियें।

स्वायंभुवि। संवित्स्थिरे! श्रीश्रीहंसधिये!।

नमस्करोमि, नमस्करोमि!!   ।। ।।६।।    

 

वर्षियाय 'शामबीज स्फुरत्कलांचा।

आशीर्याय `शं' स्थानिक - महद्बलांचा। 

मधुवर्षाय मणिपद्म मुक्ताफलांचा। 

सर्प्त्षींचें ऋक्साम हें!   ।। ।।७।।    

 

'छांदोग्य' 'अक्षर'श्रीच्या छंदाचें।

`बृहदारण्य' 'ज्ञान' श्रीच्या स्पंदाचें। (`अपूर्वा ज्ञानाक्षरीं।)

`ऐतरेय-`बिंदू' स्थल सहस्त्रार मधुनि:स्यंदाचें।

धूतपीठ हें नव्व्याण्णवावें!  ।। ।।८।।    

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