२९-५-३९
मितकाय भुवर्काय स्वर्काय।
स्फटिककाय श्रीकाय वियत्काय।
षडैश्वर्याचे युक्तोत्तम जे विभूतिकाय ।
कायाकल्पाचें सप्तिवधान हें ।। ।।१।।
`मितकाय' म्हणजे उक्ताश्रुता वाक्यरचना।
दोन अभिप्रायांची सम्यक् संयोजना।
क्रिया प्रतिक्रियांची सफलित विभावना।
व्यवहृति मूल वाग्भूमि ही ।। ।।२।।
`भुवर्काय' ही केंद्रस्था एकांगस्थायिनी।
उक्तश्रुतांची श्रीजान्हवी उगमैवमुखस्वरूपिणी।
सहस्त्रारलेली की तत्रस्था च मूलाधिष्ठानी।
द्रष्टारांची एकनेत्रा दृक्! ।। ।।३।।
उक्तिश्रुतीचें पैलतीर।
`स्वकीय' हा अभंगवाणीचा आविष्कार।
अतिद्वंद्वाचा सदेह साक्षात्कार।
तृतीय कल्प हा वाग्यज्ञाचा।। ।।४।।
बोलता एकता जेथ मावळले।
द्वंद्वातीत अभिप्राय जेथ पालवले।
निरवस्थ - स्वानुभूतियान जेथ उद्भावलें।
स्वर्गति ही स्वर्कायाची ।। ।।५।।
अभंगभावाचा येथमात्र आविष्कार।
विधेय - विधान - बिंदूंचा आलोक निराकार।
स्व स्वरूपाचा सहजैकरस साक्षात्कार।
स्वर्भावन हें तृतीया श्रेणी ।। ।।६।।
प्रथमश्रेणींत दुभंगलेंलें।
द्वितीयश्रेणींत एकांगलेलें।
तृतीय श्रेणींत अभंगलेलें।
वाग् - बिल्व हें स्वानुभूतिप्रतीक!।। ।।७।।
साक्षात्कुरू स्वर्कायाची समाधसुषमा।
नमस्कुरू निरवस्थ प्रत्यया आदिश्यामा!।
स्वीकुरू श्री -श्री - श्री -स्वानुभूति भूमा।
बीजगुह्यें हीं आदिनि:श्वास! ।। ।।८।।