२०-१-३९
चतुर्वाणींचे चार मिनार।
मध्यें विलसे गायत्री निराकार।
त्रिपाद तिचा तत्त्वदेह विस्तार।
परेंहूनि जो परौता ।। ।।२।।
तीन गर्भ एका गर्भागारीं।
तीन नेत्र स्फुटले कीं गौर भालावरी।
तीन आदेश व्यक्तले `शं' कुहरीं।
परेपल्याड परात्परले! ।। ।।३।।
पवित्रक हें त्रिदर्भ।
त्रिबीज येथला संदर्भ।
कुटस्थाचा निर्गुण पाउकागर्भ।
त्रिवेदविद्या ही ।। ।।४।।
गाढ गाढ तम:सरस्तात्।
उदिता या श्री त्रिकूट विद्युत्।
ब्रम्हनिरुक्ति:सा जान्हवी संवित्।
प्रफुल्ला पुत्रिता च बीजमातर्! ।। ।।५।।
षट्कोनांत व्याप्त् त्रिमूर्ती।
षड्दर्शनांत भास्वरली कीं श्रुती।
षड्बीजांत सामोरली श्रीसावित्री।
सप्त्मा सिंधूच्या उदगयनीं ।। ।।६।।
परेचें क्रांतिवृत्त त्रिकोणलें।
चतुर्थनाद त्रि:सुवर्णले।
त्रैलोक्यभाव सूक्ष्मतनले।
संवित् - शून्यले महानुभावीं! ।। ।।७।।
परेचा सूक्ष्मेंत प्रलय।
सत्तेचा चितींत उन्नय।
भीमेचा अमरजेंत संजाय।
बीज विद्येंतील `श्रीगं' भान हें ।। ।।८।।