६ ऑक्टोबर
एकूण श्लोक: ३३
संध्याकाळी ७.०२
स्वस्तिश्रिये सुभगे! स्वादुरुचि!।
आज मांडणी विशेष ज्ञानांची।
खुलावट किरण-किरणांची।
मूलबिंबीं ।। ।।१।।
संज्ञान प्रज्ञान प्रतिज्ञान।
कल्पन दीधीतन प्रतीतन।
संश्रवण संकलन संवेदन।
त्रि त्रिपुटी-महावाक्य आमुचें ।। ।।२।।
प्रतिज्ञान तें वस्तुजन्य।
वस्तूचें चित्तांत बिंबन।
जेथ वस्तु चित्त द्वैतलें अज्ञान।
ज्ञानाभाव आविष्कारला ।। ।।३।।
वस्तुचित्तांचें कर्म प्रतिकर्म।
उभयपदीं घेती संस्कार जन्म।
साक्षाद्भवती विकारधर्म।
साहंकार ।। ।।४।।
षड्विकारांची संधानभूमी।
प्रतिज्ञान जें विस्फुरे इंद्रियग्रामीं।
जड जाणिवेच्या जटिल धामीं।
ठेचणें विकार बिळांत त्यांच्या ।। ।।५।।
पायदळणे एकमात्र नाग।
आहुतणें एक हविर्भाग।
आचरणें एकैव विधि सांग।
पारखा प्रतिज्ञान क्रिया ।। ।।६।।
एक विखार षड्विभागला।
एक अंक षट्संख्यला।
एक दीप षडरश्मिला।
निरेकवा एकबीज ।। ।।७।।
निराकारतां प्रतिज्ञान।
विलोपतां चित्रवस्तुसंधान।
मावळतां कर्म प्रतिकर्म जनन।
धगधगेल प्रज्ञानज्योती ।। ।।८।।
जयजय! श्री प्रज्ञानज्योती!।
जयजय! श्री मंत्रद्रष्टारमति!।
जयजय! श्री श्रुतिसंदेशसंतति!।
प्रतिज्ञान प्रलये! ।। ।।९।।
अनाहतचक्रीं तुझें गोपन।
लोक मह, ईश्वरपदीं तुझें ज्ञापन।
अस्मदार्थ प्रतीतीचें ख्यापन।
तव कृपया! ।।।।१०।।
प्रज्ञानभूमि ही निरंशचेतना।
तेथ अनुभवा भक्तिसुखगायना।
विश्वोत्कर्षाच्या महाविधाना।
येथ संकल्प सुटे ।। ।।११।।
प्रलय पुन:सृष्टि यांचे खेळ।
येथ चालले रेलचेल।
चिति सौभाग्याची वेल।
ओळंबली येथ श्रीफलांनी! ।। ।।१२।।
प्रज्ञानपीठीं श्री-स्फूर्तीचा आदिकल्लोळ।
प्रज्ञानशिखरीं अवतंसे महाचैतन्य-गोल।
प्रज्ञान-नभीं विचरे `अवधूतचंडोल'।
प्रज्ञानभाव ही जीवन्मुक्ती! ।। ।।१३।। संध्याकाळी ०७.४५
संध्याकाळी ०८.१५
प्रज्ञानीं दरवळे प्रातिभ।
आणि विस्तारे हिरण्यगर्भ।
उकले अवस्था-आनुपूर्वीचा संदर्भ।
प्रफुल्ले साक्षिवृत्ती ।। ।।१४।।
तेथ कालाचें अंत:परिमाण।
तेथ स्थलाचें मूलमहत्त्वमापन।
आणि कार्यकारणभावाचें अनुबंधन।
उपलब्धेल संपूर्णतया ।। ।।१५।।
कार्यकारण शृंखला।
प्रतिज्ञानांची लोहमेखला।
जेथ अनु-पश्चाद्भाव व्यंक्तला।
तिरोहित कारकत्त्व ।। ।।१६।।
संध्याकाळी ०८.०८ कारकत्वाचें रहस्यबीज।
प्रज्ञानश्रेणींत तयाची रुज।
जेथ अंतर्धानले तत्त्वराज।
सामोरती! ।। ।।१७।।
कार्याकार्याचें कारणकारण।
शब्दाशब्दाचें विशुद्धव्याकरण।
स्वरास्वराचें सामसंगीतन।
प्रतिबिंबे प्रज्ञानमुकुरीं ।। ।।१८।।
मणिमुकुर हा प्रज्ञानसूर्य।
पार्श्वसंन्मुख जेथ अनन्य।
उभयत: जेथ प्रतिबिंबन।
‘अस्तिभाति’चें ।। ।।१९।।
अस्तित्व भातित्व येथ संयुक्तलें।
पूर्णत्त्व संख्यात्व जेथ अभिन्नलें।
साकार निराकार एकंकारले।
शुक्लतीर हें चंद्रभागेचे ।। ।।२०।। संध्याकाळी ०८.४०
प्रज्ञानवेत्ते चालविती वारी।
जीवकोटिविश्वाची खचुनी पंढरी।
‘ऐं’ ‘ह्रीं’ ‘क्लीं’ ची त्रिविधेश्वरी।
पताका वारकर्यांची! ।। ।।२१।।
निवृत्ति, ज्ञान, तुका, जनी।
चतुस्तत्त्वें विलसलीं चतुष्कोनीं।
स्थानवलें जीवजात प्रज्ञानीं।
चतुःश्रुती स्तब्धल्या! ।। ।।२२।।
रात्रौ ०८.५० प्रज्ञानाचें अधिष्ठान।
आतां शब्दवूं संज्ञान।
जेथ मूर्तलें महाकारण।
महाविद्याबीज हें! ।। ।।२३।।
कैवल्याचें कुहु-गीत।
चितितत्त्वाचें संपूर्णलें संप्रज्ञात।
द्रष्टारांचे साक्षितत्त्व।
अतिश्रुत ही अवस्था! ।। ।।२४।।
संज्ञान हा अमृतानुभव
जेथल्या अद्वैता नुरे नांव।
जेथल्या द्वैता प्रेमवैभव।
अद्वैता लाजविलें! ।। ।।२५।।
संज्ञानीं सन्मुखता दशदिशीं।
संज्ञानीं स्वतंत्रता अनंतपाशीं।
संज्ञानीं चिरंतनता प्रतिनाशीं।
उदयास्त एकत्र दिवसले! ।। ।।२६।।
संज्ञानीं श्वसन हें नामचिंतन।
संज्ञानीं गतिभाव हें प्रदक्षण।
संज्ञानीं ‘अस्मि’भान हें दर्शन।
श्रीपदांचें! ।। ।।२७।।
रात्रौ ०९.१०
षोडशकलांची चांदलेली पौर्णिमा।
अठ्ठावीस नक्षत्रांची एकवटलेली सुषमा।
उपमेयलेली महाचितीची उपमा।
संज्ञान त्या नामकरण ।। ।।२८।।
रात्रौ ०९.१४ अपूर्व, अनंतर, अबाह्य।
अस्थूल, अनणु, अदीर्घ।
‘नेति’ श्रुतीचें एकमात्र लक्ष्य।
संज्ञान हें ।। ।।२९।।
येथमात्र अस्तिभाति द्विनेत्रदर्पणीं।
प्रियत्त्व प्रतिबिंबे समुन्मेषुनी।
जणुं सौरभांत तिरोभावली कमलिनी।
प्रियत्त्व पदद्वयमहानृत्य! ।। ।।३०।।
संज्ञान नव्हे ज्ञानविशेष।
संज्ञान नव्हे प्रज्ञापरिवेष।
संज्ञान अखंडार्थवृत्ति निःशेष।
खंडन खंडखाद्य हें अतिअद्भूत! ।। ।।३१।।
संज्ञानांत निरंशतेचा ही निरास।
संज्ञानांत पूर्णत्वाचा ही पूर्णन्यास।
संज्ञानांत महानुभूतीचा विलास।
आत्मानात्मलयवृत्ति ही! ।। ।।३२।।
रात्रौ ०९.३२ श्री आदिनाथांची ‘श्री’संज्ञा!।
श्रीमुक्तेश्वरांची जीवन्मुक्तप्रज्ञा।
श्री नवनादांत नांदलेली आज्ञा!।
स्वरूपलेंलें संज्ञान हें! ।। ।।३३।। रात्रौ ०९.४०