उन्मनी वाङमय

११ नोव्हेंबर १९३८

११ नोव्हेंबर: 

एकूण श्लोक: २९

 

संध्याकाळी ०६.४०

 

स्वस्ति श्रिये! स्फुरत्ते।संवित् स्वरूपिणी।

सत् ते भास्वरे संकर्षिणि।

महाशून्यज - अवधूत श्रुति वर्षिणि।

नमोsस्तुते,नमोsस्तुते! ।। ।।१।।

 

त्रिपदा माझी ‘श्री’ शब्द गायत्री।

सकलप्रलयाकल,विज्ञानकेवलही त्रिमूर्ति।

जणुं त्रिगुणलेली माझी स्वात्मरति।

उपासनात्रय विलोच हें  ।। ।।२।।

 

विज्ञान केवलाची हिरण्य श्रेणी।

लुक्लुके श्रीमहाशून्य व्योम्नीं।

प्रकाशांश स्वरूपती अवधूतगानीं।

तेजनाद संयोग हा!  ।। ।।३।।

 

तेज तें स्वानुभूति साठीं।

आणि नाद जीवसख्यांच्या कर्णसंपुटी।

मीलनाविष्कार ही उत्कर्षखटपटी।

विश्वकार्य हें  ।। ।।४।।

 

देखिलें - तेज, डोळवूं तुम्हां।

चाखिला - सुधाबिंदू, ओष्ठवूं सर्वा।

भोगिला संविद् लेश् जीवसखे! घ्यावा!

आणि द्यावा पुन: पुन:  ।। ।।५।।

 

प्रश्नचिन्ह स्पष्टवा जीवनार्थांचे।

उद्गार चिन्ह उमटवा अमृतत्त्व आशेचें।

संबोधन ऐका श्रीअवधूतनादाचें।

संबोध हीच वाक्य वृत्ति!  ।। ।।६।।

 

संबोधन नादाची उभावणी।

जणुं कीं पूर्ण विरामली महावाक्य वाणी।

कोटिकल्पवरुषें निजेल्यांची चेववणी।

स्वस्तिदा! ही सरस्वस्ती !  ।। ।।७।।

 

संध्याकाळी ०७.२२

 

उत्तिष्ठत! सौषुप्त्ल्या जीवकुलांनो।

जाग्रत उत्संगलेल्या लडिवाळांनो।

निबोधत! अवधूत गुह्य हें स्वस्ति स्वीकृतांनो।

स्वस्तिस्थ जीवांनो! स्वस्तिवाक् तुम्हां!  ।। ।।८।।

 

गौरिशंकरलेली प्रज्ञास्थंडिलें!

प्रज्वालय तूं  महाज्वाले!।

महानुभूतींत रसलेले।

तत्त्वसंदेश उधळींत ये!  ।। ।।९।।

 

संध्याकाळी ०७.४० ते ०७.४३

 

स्थित - स्थित प्रज्ञेसी संचलन।

पुष्ट-पुष्ट अहंकारासि उन्मुळवी।

धूत धूत चिन्मौक्तिकांसि संकलवी।

अवधूतराज मी!  ।। ।।१०।।

 

मनोविज्ञान रत्नकिरण माझा।

परि मध्यबिंब ते महानुभावन।

मनोवृत्तीचें कलाविकसन।

पौर्णिमेंत संवित्तीच्या   ।। ।।११।।

 

‘संतुष्टि’ म्हणजे स्वयंयोजन।

बहुशाख-वृत्तीचें विनयन।

संज्ञानजन्य स्वावस्थापन।

संविभक्त संवेदनांचें   ।। ।।१२।।

 

मूर्तविण्या सकला उपासना।

प्रथम श्रेणी महानुभाव सोपाना।

संचरतो आकृष्टवीत अवधाना।

मानववंशाच्या   ।। ।।१३।।

 

परिपृच्छक हे माझे विश्वेदेव।

प्रश्नचिन्हें  माझी रत्नमण्यांची ठेव।

संशयात्मा हा एक एव।

अधिकारी अवधूत गुह्याचा   ।। ।।१४।।

 

उद्ध्वस्तीन मी आंधळयांची माळ।

रुढल्या शुष्काचारांचा मी काळ।

ठेचाळल्या महायात्रिकांची मी मशाल।

प्रबुद्धतेची पंचदशी   ।। ।।१५।।

 

संध्याकाळी ०८.१५

 

माझ्या पायदळीचे खडे।

होती विज्ञान वितानीचे चांदुले।

माझे शब्दनाद दरवळेेली फुलें।

संविद् लतेस वाकविती   ।। ।।१६।।

 

श्री अवधूताचें हे संकल्पभान।

पंचमावस्थेचे अध्यातृ ध्यान।

स्वसाक्षित्वाचे कीं द्रष्टपण।

अभाव्यभाव हा!   ।। ।।१७।।

 

एक शताधिक व्यक्ताव्यक्त बिंबे।

तरंगती समष्टि प्रज्ञेच्या गर्भी!  ।

मणिकिरण त्यांचे आंतर्नभीं।

परावर्तवा स्वेच्छया!  ।। ।।१८।।

 

जीवकणांत अवतरल्या इच्छा देवता।

वंद्य त्या आमुच्या महन्माता।

न तया स्पर्शू बलात्  कारत:।

संकल्पू त्यांचा स्वभाव विकास  ।। ।।१९।।

 

संज्ञानाचे पाजळवूं नंदादीप।

विनीतवूं इच्छा कल्लोळ आपेआप।

आत्मस्वरूपवूं अहंकार दर्प।

संज्ञान लीलया   ।। ।।२०।।

 

चला, चढा गांठा गंगोत्रि।

उठा, ओळखा उर्ध्ववा ही संदेश-सावित्री।

गौरावधूतांची संकल्प गायत्री।

अष्टादश विद्या ही प्रकृष्टा    ।। ।।२१।।

 

‘पुनर्वसू’ हे धूत विद्या प्रतीक।

कर्पूर ज्वाला येथिंचा महामरव।

दुग्धांगुली-स्पर्श येथला संज्ञानोद्दीपक।

त्रीजन्मा, उपासक येथला  ।। ।।२२।।

 

असंस्कृत, अद्यीज, परित्यक्त।

यांनाही त्रिजन्मविती संकल्पावधूत।

श्री-श्री-श्री वंशाचे गोत्रजात।

निर्वर्णलेले अनाश्रमी ।।२३।।

 

रात्रौ ०९.१५

 

संज्ञानितांचें हें महाजातक।

संकल्पविणार आम्ही अवधूत भिक्षुक।

विंधल्या, नथ्निल्या अनाथांचे संरक्षक।   

अविंध आम्ही स्वच्छंद!  ।। ।।२४।।

 

‘रं’ बीजपीठीं सहजारोह।

‘यं’ बीजपोटीं पुनरावरोह।

मेळविणें हा गतिस्थिति भाव।

सहस्त्र जन्मसिद्धि ही!  ।। ।।२५।।

 

रात्रौ ०९.२५

 

सुषुम्ना वाहिनीचें आज्ञाsस्थ स्पंदन।

इडा पिंगलांचे विशुद्धित समीकरण।

कूर्मनाडींत पुन: संतर्पण।

पुनर्निवेश आज्ञेंत   ।। ।।२६।।

 

धुतलें वस्त्र पांघरीन आतां।

स्नातले अंग कर्पुराकार सर्वथा।

सुवर्णले पादरज मिरवीन माथा।

इहामुत्र सर्वदा   ।। ।।२७।।

 

दुग्धाकार फेसल्या आंतर्वृत्ती।

अंतर्मुखवितां क्षणमात्र नेत्रदीप्ती।

महापवन तत्त्वाची स्थितिगति।

उपलब्धे यथावश्यक!  ।। ।।२८।।

 

उपासना ही भाव विनयनाची।

विद्या ही स्वभाव संगोपनाची।

शरणागति येथ निदेह निराकारतेची!

विराग भोग हा महाशून्यस्वाचा!।। ।।२९।।

 

रात्रौ ०९.३६

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