उन्मनी वाङमय

१३ नोव्हेंबर १९३८

१३ नोव्हेंबर: 

एकूणा श्लोक: ३२

 

स्वस्तिश्रिये! प्रज्ञें! ऋतंभरे!।

भावसहचरि, भावोत्कर्षिणि भाव भास्वरे!।

महाजीवनाच्या श्री-श्रुतिस्वरे!।

स्वस्ति श्री- अवधूत चंद्रिके!  ।। ।।१।।

 

प्रत्यक् कर्म माझा संदेश।

प्रत्यक्तत्त्व माझा तत्त्वनिवेश।

प्रत्यगनुभव माझा वास्तव्यदेश।

विस्ताररला विभु-गुणे  ।। ।।२।।

 

पृथक्-क्रिया जीवनासी निचेष्टवी।

शब्दज्ञान प्रज्ञेसी निर् मूळवी।

तर्कगुंफा महादर्शन अस्तवी।

जगीं त्रिदोष उत्त्थानले  ।। ।।३।।

 

प्रमादास न्याहाळा चित्-चक्षूनें।

पापकर्म सामोरा बुद्धिवृत्तीनें।

शंकास्थल शून्यवा प्रत्यग्दीप्तीनें।

त्रिपदा ही धूत सरस्वती  ।। ।।४।।

 

ममत्त्व भावनेचा विकार।

अंशानुभूतीची सीमा स्थिर।

तेथ महाचितिचा पूर्णावतार।

केउता प्रकटे?  ।। ।।५।।

 

डोळवतांच हेतुबद्ध अल्पध्येयें।

तिरोभावता भूमावृत्तीचा निष्कलकाय।

महाचिती ही स्वस्वरूप-समवाय।

संबंधातीत स्वबंध  ।। ।।६।।

 

पोळत्या वाळूंतून परतला पाय।

पेटल्या वणव्यांतून निवर्तली गाय।

अर्भक मृत्यूनें किंचाळली दीन माय।

वेदनाजन्य कृति विस्तार हा  ।। ।।७।।

 

तैशीच आमुचीं धर्मशास्त्रे।

आणि प्रादेशिक नियमतंत्रें।

समष्टि धारणेची कृत्रिम यंत्रे।

जणुं कीं रुग्णोपचार।। ।।८।।

 

सकाळी ११.४५

माझें तत्त्वशास्त्र ऊर्जस्वल।

जेथला आविष्कार सहजश्रियाळ।

वोसंडल्या महास्फूर्तीचा कल्लोळ।

निहेतुक स्वभावोद्गार!  ।। ।।९।।

 

फुलेल्या पारिजाताची दृति।

परिपूर्णल्या प्रीतीची प्रवृत्ती।

सहजउदेल्या प्रतिभेची स्फूर्ती।

‘आदर्शाचार’ या नाम!  ।। ।।१०।।

 

एक दुजा आर्तीत जे उद्भवे।

एक दुजा तुष्टिभाव जें पावे।

विकारचक्र तें मोहमूल ओळखावें।

न तेथ चितिस्थिति  ।। ।।११।।

 

एका आर्तीतूनी दुजी आर्ती।

एका मृतींतूनि दुजी मृती।

अनवस्थ ही पुच्छ प्रगती।

तेथ केउतें समाधान!  ।। ।।१२।।

 

विस्तारलेलें विविध विधी।

संपन्नलेल्या सहस्रसिद्धी।

रुढलेल्या राजकीय ऋद्धी।

निर्गमनें ती विकारजन्य  ।। ।।१३।।

 

कित्येक साक्षात्कारी झोंबले।

कित्येक मोक्षासाठीं उलटे लोंबले।

कित्येक मादकतेसाठीं भक्तिरंगले।

निर्गमनें हीं विकारजन्य  ।। ।।१४।।

 

अहो! पळपुट्या सत्यशोधकानो!

अहो! भांबावल्या आत्मवंचकांनों।

अहो स्वयंमन्य विज्ञातृ दांभिकांनों।

स्वपर हत्त्यारांनो! स्तब्ध व्हा!  ।। ।।१५।।

 

अवरोधा, थांबवा हें हत्याकांड।

पहा, दाखवा माजलेंलें थोतांड।

उजळा, उजळवा जीव कोटि ब्रम्हांड।

होऊं या ऋतद्रष्टे! सत्यं वक्ते!  ।। ।।१६।।

 

व्योमहस्तें सोडूं आम्ही संकल्प।

प्रत्यक्कर्मे मोडूं आम्ही विकल्प।

उभवूं महाचितिचे रत्नतल्प।

पतिजीव गेहीं!  ।। ।।१७।।

 

दुपारी १२.२७

 

न बोलल्या शब्दीं आम्ही देतो शहाणीव।

न व्यक्तल्या विभवे नटली आमुची राणीव।

न पदार्थ - निष्ठा आमुची जाणीव।

स्वयंप्रकाश महाभान हें!  ।। ।।१८।।

 

दुपारी १२.३२

 

सदातर्नाची सुवर्ण मेखला।

समाधिमण्यांची सनातन शृंखला।

प्रज्ञासूत्रित प्रेमपुष्पमाला।

फेकली येथें  ।। ।।१९।।

 

प्रयोग सुयोग प्रति योग।

त्रिपुटि ही तत्त्वशास्त्राची सांग।

जणुं कीं शीर्षत्रयांचा प्रयाग।

किंवा नेत्रत्रय श्रीआदींचें  ।। ।।२०।।

 

प्रतिष्ठावें जें जें भान।

तें तें होतसें अस्तमान।

अभिनव अवस्थेंत अंतर्धान।

प्रत्येक पूर्वावस्थेचें  ।। ।।२१।।

 

अनुभवितां निष्कलतेचें तत्त्व।

दुजी अभिनव कला होई संप्राप्त्।

डोळवितां शून्य होई पुनर्व्याकृत।

अभिनवा वर्तुलाकृती  ।। ।।२२।।

 

चेववूं जातां दिसे दुजी स्वप्नसृष्टी।

निर्गुणवितां सत्यतेस, पुन:साकारे ‘संकल्पमूर्ती’।

वाणी नि:शब्दविता नवनाद संतती

प्रस्फुरे सहजतया  ।। ।।२३।।

 

संध्याकाळी ०८.१८

 

गुंफा ही अवस्था - भानांची।

कथा ही अनुस्यूत अनुभव रज्जूंची।

वनस्थली श्रीदर्शन लतिकांची।

निरवस्थित चित्स्फूर्ती! ।। ।।२४।।

 

प्रत्यक्तेंत केंद्रवा प्रज्ञाशक्ती।

स्वानुभवीं बिंबवा तत्त्वदीप्ती।

स्वप्रमेयी होऊं द्या तत्त्वानिष्पत्ती।

प्रमेय हेंच अर्धसत्य ।। ।।२५।।

 

पूर्व पक्षांत ओळखा उत्तर पक्ष।

देहानुभवीं डोळवा आत्मसाक्ष।

पदार्थज्ञानांत हुडका अपरोक्ष।

उफराटी ही प्रक्रिया!   ।। ।।२६।।

 

न, मी मूल तत्त्वें प्रत्यक्षवीन।

न मी मूलरूपें प्रकाशवीन।

न मी मूल हेतूं प्रकटवीन।

स्वेच्छया स्वशत्तया  ।. ।।२७।।

 

संध्याकाळी ०८.४३

पालवीन मी तुमचे ओठ।

उन्मेषीन मी तुमची दृष्ट।

इच्छिला जो गुह्यस्फोट।

त्याचे तूं उपकरण!  ।। ।।२८।।

 

प्रक्रिया ही निगूढ माझी।

परिप्रश्नीं प्रत्युत्तराची रुजी।

मौक्तिक कीं जन्मवितो वेजीं।

जादूगार जीवनाचा!  ।। ।।२९।।

 

स्वानुभव हें आद्य आलंबन।

प्रत्युत्तर हें अंगुलि निदर्शन।

साक्षात्कार म्हणिजे स्वसंभ्रम विलोचन।

न, कीं, संशोधन दूरस्थाचा!।। ।।३०।।

 

संध्याकाळी ०८.५६

 

रूतला कंटक काढा हळुवार।

भग्नलें स्वप्न स्पष्टवा साकार।

हरपलें स्वसंकलन, मोडला संसार।

सांवरा स्वसंपूर्णतया!  ।। ।।३१।।

 

आपूर्यमाण झालें आंतर्जीवन।

त्रयोदशलें अंत:समाधिधन।

सहजतया संप्राप्त्लें गंगावतरण।

सहज हा जीवनोद्रेक!  ।। ।।३२।।

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