उन्मनी वाङमय

१६ नोव्हेंबर १९३८

१६ नोव्हेंबर: 

एकूण श्लोक:३८

 

सकाळी ११.२२

 

आत्म विशुवांत प्रथमस्पंद।

एकूनवीस कोनीं तयाचे पडसाद।

तत्त्व विशुवांत अंतिम निनाद।

प्रबोधन -रीत ही!  ।। ।।१।।

 

दश प्रथमाक्षरें ही जीव कोटी।

अधिष्ठानलीं एकादश ‘ऍ’ पृष्ठीं।

समवायें माझी तेजो वृष्टी।

पहिली मृगकालाची  ।। ।।२।।

 

‘मृर्गशीर्ष’ माझें प्रथम प्रतीक।

तया डोळवीत करितो तुषार फेंक।

साहणें माझा अग्निरसाचा अभिषेक।

संज्ञानितांस केवळ शक्य!  ।। ।।३।।

 

वळवाचे सांडित बिंदु बिंदु ।

‘कृष्णमेघ’ मी संचरतो स्वच्छंद।

साकारलेला कीं श्रीसंश्रुतिछंद।

गुरू मुखें मानसलेला!   ।। ।।४।।

 

‘श्रीगुरूचा’ मी सहज हेत।

व्यक्तलों अवधूत विद्येचा केत।

‘तत्त्व विशुव’ भानाचें अंशरेत।

धूतबाल धूतरेणू!  ।। ।।५।।

 

संकल्प - धूतांचा मी एक प्रेषित।

धूतकृ पया पूर्णत: गुडाकेशित।

मानव्य हें भटकतो निरखीत।

कुरवाळित सांभाळित, यथादिष्ट!  ।। ।।६।।

 

स्वातंत्र्य माझें महन्मर्यादित।

श्रीमंती माझी अतीव कंटकित।

चाललेली स्वागतें सर्वत्र।

कठोर परीक्षा पीठें!  ।। ।।७।।

 

मध्याह्न १२.००

 

क्वचित् क्वचित् भेटती जीवशलाका।

देखती, अन् स्पर्शती या विद्युत् पंखा।

साहाय्यती या क्षूद्रप्रचारका।

आदिष्टलेल्या, गुरूवृंदे  ।। ।।८।।

 

मध्याह्न १२.०५

 

असलीं माझी सुवणोपकरणें।

घनवटली कीं धूतकृपेची किरणें।

फेडती गुरूनेत्रांचें पारणें।

हिरवे चाफे अंधारींचें   ।। ।।९।।

 

सुगंध त्यांचा ओळखतो आम्ही।

लुटितो, लुटवितो त्रि - भुवर - धामीं।

ब्रम्हदेह आमचा संवित् स्वामी।

गुलाब पुष्पे पुष्टला  ।। ।।१०।।

 

मध्याह्नी १२.२०

 

संविदुदयाचा प्रथम प्रभात।

प्रकट कीं चिद्भान अनवस्थ।

गंगोत्रलेला श्रीनवनवपंथ।

नमोsस्तुते! ब्रह्मणस्पते!  ।। ।।११।।

 

ध्वनिक्षेपकांनो! श्रीसौभाग्य तुम्हां।

मालाकारांनों! सुगंध आम्हां।

लाथाळुनि कूटस्थाच्या निजधामा।

येथ आमुचा संचार!  ।। ।।१२।।

 

संध्याकाळी ०६.०५

 

लतेस रुजविण्या भूमिकेंत पुन्हा ।

तारकेस अर्पिणें पुन: स्वस्थाना।

श्रोतयास परतविणे उगम निधाना।

जीव संवित् - सुयोग हा  ।। ।।१३।।

 

रहस्यार्थ श्री बीज विद्येचा।

संगम जो चिति संवितिचा।

एकभाव चंद्र पौर्णिमेचा।

पुनर्लब्धि पूर्ण बिंबाची  ।। ।।१४।।

 

दुरंतलेली श्रीसंवित् पौर्णिमा।

हुडकीत चाललो ती श्यामसीमा।

समवीत प्रवृत्ती, ज्या विषमा।

सर्वत्र स्फोटलेल्या  ।। ।।१५।।

 

वृत्ति ग्राव कोटिसंस्कारांचे।

सत्य निकष बुरसटल्या प्रज्ञावंतांचे।

शिक्षाविशेष रुतल्या गुरूगंर्दभांचे।

तोडू, झोडू आणि मोडू!  ।। ।।१६।।

 

अहंकृतिच्या कर्दमांत बरबटलेले।

उष्ट्या अनुभवांत खरकटलेले।

अनुकृतींत सर्वदैव मरकटलेले।

`गुरूगद्धे' हाकलून द्या!  ।। ।।१७।।

 

निरखूं या स्वभावेात्कर्षाचा राजविधी।

पारखूं या स्वानुभवी व्यतिरेक बुद्धी।

साधूंया धृति प्रतिभेच्या संधी।

संधिप्रकाश तो जागर् क्षण!  ।। ।।१८।।

 

संध्याकाळी ०६.३५

 

प्रतिभा ही चित्सूर्याची माध्यान्हकला।

धृति ही जीव विशेषाची स्थैर्यवृत्ति सकला।

सकलांग जागराची जननी चपला।

निमिषसंधि निरखू  हा!  ।। ।।१९।।

 

धृतिधर्म शिकवीत चालला यात्रिक।

महाजागर स्फुटवीत बोलें बम्ह मांत्रिक।

अंधारीं लपलें सूत्रधार कौशिक।

महामांत्रिकाच्या मृत्कला   ।। ।।२०।।

 

मृत्तिकेचे ते झिरपणारे घट।

शब्दामागचे पालवणारे ओठ।

ब्रम्हजीवनाचे जणुं षोडशकाठ।

षोडश शक्ति त्या!  ।। ।।२१।।

 

यात्रिकास दावा तुमच्या फाटल्या कथा।

तुमच्या आंतरीच्या यथार्थ व्यथा।

एकंकारा अनुभवीचा निर्गाठला - गुंता।

आणि त्याच्या झोळींत टाका!  ।। ।।२२।।

 

पेठकरी यात्रिक हा अद्भुत।

घेऊनि लतक् रे देई महावस्त्र।

खड्या खड्यासि रत्नें मोजीत।

वाढलें भांडवल बेपाऱ्याचें   ।। ।।२३।।

 

आंतर्व्यापार बढत चालला।

उतरता भाव मागणी - मालाला।

लाभविशेष किरकोळ ग्राहकाला।

व्यक्तित्त्व हेंचि व्यापार केंद्र  ।। ।।२४।।

 

घाउकी, न त्याचा व्यवहार।

रोकडा न कधीं, सर्वदा उधार।

क्रेता तो जो, मूल्य जाणणार।

मूल्य ग्रह अनवश्यक।। ।।२५।।

 

यथार्थ करा हिऱ्यांची पारख।

आणि ते घेऊनी चला बेशक।

आनंदवी यदि या रत्नमण्यांची झाक।

हसा! आणि घेऊनी जा!  ।। ।।२६।।

 

सुखेनैव ल्या एक एक अलंकार।

यथाशक्ति चालवा ‘श्रेष्ठीचा’ या व्यापार।

याचक जे डोळस, त्यांस हा रत्न संभार।

बळें बळेंच द्या!  ।। ।।२७।।

 

येथ न मागत्या पहिला आहेर।

येथ शिलोदरीं पहिली बीजपेर।

येथ सजावटलें मायेचें माहेर।

विमुखल्या विरोधकांसी।। ।।२८।।

 

पळत्या पायांस येथें थांबवा।

पाठिमोरल्या वावदूकास शांतवा।

हिर्मुसल्या विद्वद्व्याह्यांस लोडाशी बैसवा।

मूढ मानकरी हे भोपळयाचे!  ।। ।।२९।।

 

स्कंधीं घेऊनी रिकामे भोपळें।

मिरवती हे लाकडी ठोकळे।

निष्प्रज्ञ ते वृषभ मोकळे।

बोकाळले इतस्तत:  ।। ।।३०।।

 

हळूंच ढकलू भोपळा त्यांच्या स्कंधीचा।

हळूंच मोकलू बंध त्यांच्या अहंमन्यतेचा।

हळूंच पोकळू शिलास्तंभ जड संस्कारांचा।

हळूवार प्रक्रिया ही   ।। ।।३१।।

 

आमुची शास्त्रें पाणीदार।

आमुच्या क्रिया  सोपस्कार।

अभावित आमुचा संकल्प व्यवहार।

सर्वथैव अप्रकट!   ।। ।।३२।।

 

संज्ञानाच्या हिरवळीवरचे बालक।

रांगेजो हा श्री अवधूतांश महायात्रिक।

मृगशीर्षध्यानीं स्थिरलेला निनाद ‘अल्लख’।

विज्ञातंृनाथ ज्ञान रश्मि  ।। ।।३३।।

 

संवित् - संहिता आणि विश्वसंस्थिती।

ययांची जी स्वभाव संगती।

त्या संगतिची शाब्दिकां अभिव्यक्ती।

‘संप्रदायार्थ’ प्रथमाविष्कृति!  ।। ।।३४।।

 

संध्याकाळी ०७.५४

 

यत् किंचित् जेजे होऊनि गेले।

नवाविष्कार जे कीं होऊं घातले।

तयांचे श्रीवैभव अतिसीमलें।

संविद् विद्येचा क्रमोत्कर्ष   ।। ।।३५।।

 

आजवरी जी व्यक्तलीं प्रतीकें।

मानवी कल्पनेंत बिंबलेली रुपकें।

व्यर्थवितील त्या संविद् विद्येची लेशकौतुकें ।

प्रारब्धला महाक्षण तो!।। ।।३६।।

 

संध्याकाळी ०८.०० ते ०८.१३

 

प्रथमोपक्रमाचे पंक्तिस्थ जीव।

नव निधीतील पहिली रत्नठेव।

संवित् संहितेचें राजस - राजीव।

स्फुरेल या ब्रह्ममांत्रिक देही!  ।। ।।३७।।

 

‘स्वीकरू’ मम सख्य नमस्कृति।

शीर्षीकुरू संवित् संहिता विष्कृ ति।

गृहाण ही मांगल्य सर्व संपत्ती।

सर्वस्व दान समाचार  ।। ।।३८।।

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