उन्मनी वाङमय

१७ नोव्हेंबर १९३८

१७ नोव्हेंबर

एकूण श्लोक: २०

 

संध्याकाळी ०६.००

 

भाव स्फुरत्तेची आंतर निर्झरिणी।

निरस्तली शब्द मेघावरणीं।

नि:श्वासिति जीवभानें कोंदटल्या व्योम्नीं।

कुंद, धुंद वातावरण! ।। ।।१।।

 

मिटल्या डोळयांत निक्षेपूं तेज।

थबकल्या वृत्तीं जन्मवूं परिव्राज।

अनुरागीं एकवटवूं श्रीवैराज।

एकवटणें माझा सहजविधीं!  ।। ।।२।।

 

संध्याकाळी ०६.१३ ते ०६.१५

 

झुंजार मी माझ्या शास्त्रशास्त्रकला।

विच्छेदिति पंच पंच वृत्तिमाला।

‘निवृत्ति’ भाव सहजें समुत्कर्षला।

भक्ति सुख गायकांसाठीं! ।। ।।३।।

 

अमृतानुभवुनी श्रीज्ञानैश्वर्य।

वटेश्वरीं तत्त्वगुह्य जें प्रचार्य।

रुपवुनी जें स्फुटविलें तें अविकार्य।

व्यक्तलें पंचष्ठिविकार !  ।। ।।४।।

 

संध्याकाळी ०६.२५

 

भावस्फुरत्तेचें प्रमोद कौतुक।

घनवटलें, त्याचा रेणु एक एक।

शब्ददेह आत्मवी जयाचा प्रकाश लेख।

डोळवा हिरण्य मुकरीं  ।। ।।५।।

 

हिरण्य मुकरांत जीव कोटि संघटला।

तेथ परिवर्तिति भाव ज्योत्स्ना संपुटल्या।

विजय केतु आमुचा, दुग्ध श्रोतसीं ज्या प्रस्फुटल्या।

अल्पाकार महाशक्ति!   ।। ।।६।।

 

भावस्फुरतेची निमिषैक लकाकी।

झळकतांच बोथटलेंल्या बुद्धिसायकीं।

तेजाळे तेथ प्रतिभाशक्ति अलौकिकी।

महाजागर सासिन्नला!  ।। ।।७।।

 

संध्याकाळी ०६.३५

 

चला वृत्ति वृत्तिला निवर्तीत।

उठा स्फूर्ति - स्फूर्तिला प्रवर्तीत।

अनुभवा भाव - भाव हा ‘गार्हस्थ्य’।

निरवस्थलेला निवृत्तलेला!  ।। ।।८।।

 

महाभाव हा, न कीं विनयजन्य।

महायाग हा, येथ हविरग्नि अनन्य।

निस्तंभ गृहस्थांचें श्रियांळलेंलें दैन्य।

निरवस्थ निवृत्त गार्हस्थ्य!  ।। ।।९।।

 

येथिंचे विनाश विधायक।

येथिंचे संतर्पण स्वसंतोषकारक।

येथिंते अंधार तेजस प्रज्ञा प्रदीपक।

येथ अंतर्विरोध समस्यले!  ।। ।।१०।।

 

‘श्वेतपीत’ हीं येथली प्रतीकें!

शिवत्त्व विष्णुत्व येथलीं क्रमरुपकें।

महाद्वंद्व - अनुस्यूति प्रापकें।

निर्द्वंद्वा गार्हस्थ्य निवृत्ति!   ।। ।।११।।

 

‘पुनर्वसु’ हें प्रकृतावस्थेचें ज्ञापक।

‘हें भान’ पुन: प्राप्त्ल्या वैभवाचें व्यापक।

वटेश्वरीं या विश्वस्तले  जे शावक।

पुनर्वसुवृष्टि तयांवरी!  ।। ।।१२।।

 

संध्याकाळी ०७.०५

 

भानबिंब हें भावस्फुरत्तेचा अवधी।

संज्ञान - संकल्पाचा सुवर्णसंधी।

कौल समयाचा संयोगविधी।

‘काश्यप’ मी महायाजक!  ।। ।।१३।।

 

‘काश्यप’ म्हणजे पश्यक।

‘सिंह’ म्हणजे ‘हिंस्’ निर्दिष्ट विश्वदु:ख।

‘शिव’ म्हणजे ‘वस्’ निर्दिष्ट वासनादीपक।

नाथविद्येची रहस्य त्रिपुटी!  ।। ।।१४।।

 

आमुच्या शब्दांच्या उफराट्या व्युत्पत्ती।

वागण्याची आमुच्या सहजवंचक रीती।

‘जादूगिरी’ ही पसरीत जगतीं।

नागवूं सकळां हां हां म्हणता!  ।। ।।१५।।

 

महावस्त्रें घालीत सोलूं तुमची चामडीं।

पर्जन्यवृष्टि करितां पेटवूं इकडे आगकाडी।

देखतां देखतां सहजें झुकवूं पारडी।

आम्ही ‘वैश्य’ विश्वराज!।। ।।१६।।

 

संध्याकाळी ०७.२८

 

‘निवृत्ती’ गार्हस्थ्याचा ‘निवृत्ती’ हा ‘प्रकाश’।

विधायक - गार्हस्थ्य हा ‘विमर्श’।

संज्ञाकल्पांचा अन्वयलेला उल्हास।

हा न्यस्तग्रहविधि!  ।। ।।१७।।

 

‘समय’ मी समाधिस्थ भाव।

स्फुरत् तुषाराचा पूर्णाविर्भाव।

संविद् बिंदूंचा निमिषैक वर्षाव।

निवृत्ति ग्रार्हस्थ्य ब्रह्मदेहाकार!  ।। ।।१८।। 

संध्याकाळी ०७.३५

 

संध्याकाळी ०७.४०

 

स्वस्ति श्रिये! स्वस्ति भगदीप मालिके!।

श्रीतलीं, तुष्टलीं, हीं अजाण अर्भकें।

सिंहस्थे! नीलांबरी! संविद् लेखे!।

इयम् जे नमस्यांजलि:! ।।१९।।

 

रात्रौ १०.१५

 

स्वस्ति श्री!

चार आठ सोळा मिळुनी।

कामिनी निजजीवासि दावी।

Good Luck - स्वस्ति श्री!।

ऐसी प्रियासी अंगसंग भोगुनी।

भ्रमरगुंफेमाजीं ठेविलें।

या लागीं जाणुनी नेणसी।

आमुचा अवधूत पंथू! मच्छिंद्रा लाधले।

ऐसी, योगीश्वर, निजानंदांत मग्न असतात। ।।२०।।

आमचा पत्ता

Dr. Samprasad and Dr. Mrs. Rujuta Vinod Shanti-Mandir, 2100, Sadashiv Peth, Vijayanagar Col. Behind S. P. college Pune - 411030 

दूरध्वनी क्रमांक

+91-20-24338120

+91-20-24330661

+91 90227 10632

Copyright 2022. Maharshi Nyaya-Ratna Vinod by Web Wide It

Search