उन्मनी वाङमय

१८ नोव्हेंबर १९३८

१८ नोव्हेंबर: 

एकूणा श्लोक: २५

 

सकाळी ०९.५०

 

अल्पांत  ‘भूमा’ चे दर्शन।

परमाणूंत गिरनार संस्थापन।

नेत्र बिंबी आदित्य बिंबाचें उद्गयन।

‘संपत् प्रयोग’ या नाम  ।। ।।१।।

 

व्यष्टितत्त्वींच समष्टितेची संभावना।

स्थूल देशीं महाकारणाची प्रतिष्ठापना।

रेत बिंदूंत वंशसरितेची समर्पणा।

संपत् क्रियेचा विशेष   ।। ।।२।।

 

एक शब्दांत ओतणें चतुर्वाग्भाव।

एक धारेंत निखिल मेघवर्षाव।

एक गुलाबांत सासिन्नला माधव।

संपत् प्रयोग सिद्धि ही!  ।। ।।३।।

 

एक वाक्यांत संपूर्ण सारस्वत।

एक आदेशांत व्यक्तला नवगुह्यहेत।

एक ब्रह्मदेहीं संविदुदय साक्षात्।

संपत् क्रियया  ।। ।।४।।

 

अठ्ठावीस तेजोलवांची संहिता।

अठ्ठावीस स्फुरणांची विद्युल्लता।

अठ्ठावीस अजालोमांची एक कंथा।

संपद् याग हा  ।। ।।५।।

 

सकाळी १०.१५

 

अठ्ठावीस नक्षत्रांची प्रतीकावली।

अठ्ठावीस नसांची मूर्तली अंगुली।

अठ्ठावीस कल्पयुगें संयुक्तलीं पाऊली।

‘संपद् विठ्ठल’ प्रतीक हें!   ।। ।।६।।

 

संपद् विधि हा प्रती कोपासनेचा विशेष।

पदांगुष्ठीं विष्णुतत्त्वाचा समावेश।

दग्धमान कर्पूर लेशांत श्री संवित् प्रकाश।

गौरांगसूर्येचा!  ।। ।।७।।

 

सकाळी १०.३०

 

‘कल्पयुगें’ म्हणजे कालीं कालींचे संकल्पप्रयोग।

संज्ञान - संश्रवणपदीं संपद् भवला जो सुयोग।

स्थूल मृत्तिकेला लाधला त्याचा उपभोग।

एकवटल्या एकविटेला  ।। ।।८।।

 

शुक्लांत कृष्णाचे दर्शन।

जलांत स्थलाचें प्रकटन।

मृत्तिकेंत डोळिवणें सुवर्ण।

आरोपक्रिया ही!     ।। ।।९।।

 

सकाळी १०.३५

 

खडयात भासणे हीरक ।

विकारात वाजविणे विवेक ।

अग्निज्वालेत पयसाभिषेक ।

आरोपक्रिया ही ।। ।।१०।।

 

मानव्यात अनुभविणें देवत्व।

घनवटल्या मूर्तींत अवकाशतत्त्व।

स्थाणु देशीं व्यक्तणें प्रेरकत्व।

आरोप क्रिया ही     ।। ।।११।।

 

लतेवरीं शिंपडणें तुषार।

मौक्ति कास वेजणें आरपार।

हिरकणीसी कोपविणारे परिप्रहार।

या नांव संस्कार क्रिया   ।। ।।१२।।

 

सकाळी १०.५८

 

शिलाखंडासी मूर्तविणें।

सुवर्णासी शोध - शोधणें!

इंद्रीयग्रामासी पुनीतणें।

या नाम ‘संस्कार’  ।। ।।१३।।

 

ज्ञानाज्ञानासि भावविणें।

वृत्तिवृतीसि निवृत्तणें।

अहं अहंला निरवस्थणें।

या नाम ‘संस्कार’  ।। ।।१४।।

 

पृष्ठा पृष्ठावरीं उठविणें नवलहरी।

काष्ठा काष्ठावरी रंगविणें रंगवल्लरी।

संज्ञान मुद्रा संकल्पिणें प्रज्ञे प्रज्ञेवरीं।

या नांव संस्कार  ।। ।।१५।।

 

क्रिया गर्भांत वोपणें दीधीतन।

प्राकृत शब्दांत वितरणें व्याकरण।

गुंतल्या भावनांचे प्राज्ञलेंलें पृथक्करण।

या नांव संस्कार    ।। ।।१६।।

 

नियोजन वैश्वानर - विद्येचें।

वैश्विक वैयक्तिक अंत:कूटस्थांचें।

संश्रवणन जेथ क्रमत: निर्वचे।

संस्कारशास्त्र तें धूतगुह्य!  ।। ।।१७।।

 

‘अध्यास’ हा तुरीय विशेष।

श्रीउपासनेचा श्रियाळ अंश।

संश्रवण अवस्थेचा विभास।

प्रतीकराज हा!  ।। ।।१८।।

 

संपद, आरोप, संस्कार, अध्यास।

प्रतीक शास्त्रींचें चतु:सूत्र चरणांश।

वैश्विक वैयक्तिक चिद्भानांचा क्रमोत्कर्ष।

चौरंगमूर्तींत चौफाळला  ।। ।।१९।।

 

प्रतीतव्याचें प्रकट देहीं।

पदार्थाच्या भान प्रवाहीं।

प्रमेयाच्या प्रत्यक्ष आविर्भावीं।

अतद्दर्शन अध्यास हा!  ।। ।।२०।।

 

शबलाध्यासीं सन्मुखे व्यतिरेकशास्त्र।

वस्तुवस्तूचें विज्ञान विपर्यस्त।

मिथ्या ज्ञान अतद्रूप प्रतिष्ठ।

विपर्ययरूप शबलाध्यास  ।। ।।२१।।

 

इंद्रिय ग्रामांत आत्मतत्त्व  व्यक्ति।

पंचक्लिष्ट वृत्तींत सुस्वरूपावस्थिति।

अल्पअल्पप्रेमांत भोगणें श्रीपराभक्ति।

शुक्लाध्यास हा!  ।। ।।२२।।

 

शुक्लाध्यास हें धूतांचें स्थिरभाव।

विश्वांचें विकारांचे व्युत्क्रमण।

निर्गुणाचें कीं देह दंड धारण।

शुक्लभूमिकेंत या  ।। ।।२३।।

 

शुक्लपक्षांत या प्रत्यहीं पूर्ण पौर्णिमा।

शुक्लदर्पणीं या पूर्ण बिंबे स्वरूपंमा।

शुक्लतीरीं गार्हस्थ्य निवृत्ति उत्तमा।

श्रीलतिका कीं सासिन्नली   ।। ।।२५।।

सकाळी ११.५२

 

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