१९ नोव्हेंबर:
एकूण श्लोक: ५१
दुपारी ०३.२५
विश्वक्-स्थिति, व्युत्थिति, व्यूति।
विकृति, विषुवस्थिति, व्यवहृति।।
व्याहृति, व्युत्पत्ति, आणि संव्यवस्थिति।
नवरश्मि महाजीवन बिंबाच्या ।। ।।१।।
विश्वक्स्थिति म्हणजे सदसव्यतिरिक्त ‘नासदीय’ विश्वभाव।
व्युत्थिति म्हणजे ‘एको बहुस्याम्’ प्रजायेय।।
व्यूति अनेक इच्छा तंतूंचा समन्वित जालदेह।
प्रथमा ही विश्वभाव त्रिपुटी ।। ।।२।।
व्यूति देहीं संबद्धतताच विविध इच्छा रश्मि।
विश्वबीज सन्मुखे विकृति धर्मीं।।
स्फुरतां भोक्तृभाव व्यक्तली विषुवभूमि।
व्यवहृति म्हणजे भोक्तृ - भोग्य - व्यवहार ।। ।।३।।
व्याहृतींत होई अवस्थात्रय प्रकट।
व्युत्पत्ति म्हणजे अनुभव मूलार्थ भेट।
संव्यवस्थिति म्हणजे अनुभवविशेषांचे प्रस्फोट।
संयुक्तले जेथ यथामूल्य ।। ।।४।।
विश्वक् स्थितींत सद् सद्भावाचें दहिंवर।
आवरणभावें झालें व्यक्ताकार।।
जेथ अविशिष्ट अव्याकृतांचा संभार।
प्रसिद्धला अस्पष्टतया ।। ।।५।।
निशा कीं गाढ गाढ अंधारांची राशि ।
निद्रा कीं नटली अबोधानुभव वेषीं।
मृति कीं मूर्तली निश्चेष्ट देहदेशीं।
प्रतीकें हीं विश्वक् स्थितीचीं ।। ।।६।।
दुपारी ०४.२७
व्युत्थिति ही इच्छाशक्तीचे प्रथम स्फुरण।
समष्टि स्वरूपतेचें प्रथम व्यष्टीकरण।।
निस्तब्ध अवकाशीचा स्फूर्तला कीं पवन।
रेतोग्दार आदिम हा ।। ।।७।।
पुष्पकोशीं प्रकटला केसर।
सलिल पृष्ठीं उत्तंसला कीं तुषार।।
सुषुप्त्यंतीं विचरला जागर।
जणूं हा पहिला वहिला ।। ।।८।।
व्यूति म्हणजे व्युत्थितींची संगति।
मंत्रामंत्राची जणुं संहितास्थिति।
प्रकटल्या इच्छाविशेषांची समिष्टमूर्ति।
विकृतीचा पार्श्व हा ।। ।।९।।
तंतुजाल हें विस्तरलें इच्छा स्फुरणांचें।
रक्तबिंब कीं मूलानुरक्ति किरणांचें ।।
महागीत कोटिसहस्त्र चरणांचे।
व्यूति वैशिष्ट्य एवंरूप ।। ।।१०।।
सकाळी ११.२०
एकैव इच्छेसी न ये अर्थवत्ता।
एकैव व्यक्तीस न लाधे सम्यक् जीवनता।।
एकैव सम्राटा किमर्थिनी सत्ता।
अतएव व्यूतिभूमि ।। ।।११।।
व्यूतल्या समष्टिक अनुभवीं।
व्यष्टिक विकृति ही देखावी।।
सलिलपृष्ठीं कीं समुद्भवावी ।
वीचिवीचि ।। ।।१२।।
दुपारी ०४.५१
व्यतिनभीं नाचले जे समीर।
व्यूति निद्रेंत उमटले कीं स्वप्नप्रकार।।
व्यूति मौनीं व्याकरणले वागुद्गार।
विकृति विशेष जे ।। ।।१३।।
व्यष्टिलेल्या विकृतींचा स्वीकार।
करूनी, चितिबिंदु होई भोक्तार।।
विषुवस्थिति हा आविष्कार।
जीवोऽहं भावाचा ।। ।।१४।।
पंचकिरणीं व्यक्तला विषय - विषयी - भाव।
त्रिविधले तेथ प्रमाण - प्रमातृप्रमेय।
अनुभव वर्तुलाचा मध्यकेंद्रानुभाव।
विषुवस्थितींत या ।। ।।१५।।
संध्याकाळी ०५.२४
येथ प्रकटे विकृतिविशेषांचा स्वामी।
येथ जन्मे बहुशाखवृत्तीचा कामकामी ।
येथ आढळे जीवभाव जो अनंतधर्मी।
कर्म पंजरीचा जीवशुक ।। ।।१६।।
व्यवहृति म्हणजे क्रिया प्रतिक्रिया।
शासन अनशनांची मूर्तली माया।।
जीवत्व जडत्वांची जी संयुक्तली काया।
अधिष्ठान तें व्यवहारांचें ।। ।।१७।।
दिसणें, पाहणें, बोलणें, ऐकणें।
देणें घेणें आणि जाणेंयेणें ।।
जड आणि चेष्टाकेंद्र यांचें युक्त वियुक्तणें।
या नाम व्यवहृति ।। ।।१८।।
त्रिदेहभाव आणि इंद्रियग्राम।
कर्ता उपकरणें आणि कर्म।।
धर्मी संस्कारविशेष आणि धर्म।
व्यवहारभूमींत व्यक्तले ।। ।।१९।।
चेष्टा केन्द्रांचे संयोग प्रतियोग।
इंद्रिया इंद्रियांचे संभोग उपभोग।।
जीवनवनिंचे मळलेले मुख्य मुख्य मार्ग।
व्यवहृति भूमिकेंत आकारती ।। ।।२०।।
संध्याकाळी ०५.४५
भूतकोटिकल्पांचें संयुक्त ‘संचित’।
भविष्यत् विश्वांचें ‘क्रियमाण’ शाश्वत।।
वर्तमान जीवन सहस्त्रकांचें ‘प्रारब्ध’ अनंत।
व्यवहृति भूमींत त्रिपुरलें कर्म ।। ।।२१।।
बहिर्याग आंतरयाग महायाग।
त्रियागांचे या स्थंडिल अभंग।
कृष्ण रक्त धवलांग।
त्रिविधली व्यवहृति भूमी ।। ।।२२।।
कृष्णांग म्हणजे जडकर्मभूमि।
रक्तांग म्हणजे जडजड कर्मभूमि।।
धवलांग म्हणजे शुक्लाध्यास भूमि।
व्यवहृति भूमीचे त्रिनेत्र हे ।। ।।२३।।
कृष्णांगांत स्फोटले कामाचार।
रक्तांगांत गोठले बौद्धिक अहंकार।।
धवलांगांत लोटले संज्ञान स्फुरत्कार।
तृतीय नेत्र हा गौरकिरण ।। ।।२४।।
व्यवहारांत व्यष्टि समष्टिंचा समुत्कर्ष।
व्यवहारांत एकादश इंद्रियांचा समुल्लास।
व्यवहारांत क्रिया प्रतिक्रियांचा विलास।
महाबीज भूमिका ही ।। ।।२५।।
कृष्णकोणीं व्यवहरती भोगभोगी।
रक्त कोणीं संचरती भोगत्यागी।।
शुक्लकोणीं विहरती संकर्मयोगी।
लोकसेवक अवधूत ।। ।।२६।।
संकर्म हें विश्वोत्कर्षाची अंगभूत कृति।
सत्कर्म म्हणजे बीजवी जें समष्टि प्रगती।
सुकर्म म्हणजे व्यक्तिविकासाची संप्राप्ती।।
कर्मविद्या ही अभिनवा ।। ।।२७।।
‘विगतं श्व:’ नुरे उद्या त्या नाव विश्व।
वर्तमानीं स्फुरे तेथ जें शाश्वतोद्भव।।
जयांत जडाजड कोटींचा प्रत्यक् स्वभाव।
संयुक्तभावे समावेशला ।। ।।२८।।
महायाग म्हणजे विश्वमूर्तीचें अर्चन।
आंतरयाग म्हणजे समष्टिसावित्रीचें सेवाविधान।।
बहिर्याग हा यर्थातत: स्वव्यक्ति विकसन।
त्रियागांचे तत्त्वार्थ हे ।। ।।२९।।
संध्याकाळी ०६.४५
हिरवे चाफे ते महायागी।
अभावितपणें, सुगंधविती जीवांस, जे संकर्मयोगी।।
विश्वतत्त्वास विकसविणारे विरागी।
अंधारीं त्यांच्या यागगुहा ।। ।।३०।।
अव्यक्त हस्ते पुसती ते असुं।
अज्ञातशब्दे उधळिती ते हंसु।।
अस्पष्ट त्यांचा संकर्म-स्पर्शुं।
जीवकोटीस प्रकर्शवी ।। ।।३१।।
संकर्म बिंबांची धवलिमा।
हळुहळुं शुक्लवी सु-सत्कर्मा।।
प्रस्फुरे पसरीत वैभव सुषमा।
स्वकीय दीप्तीची ।। ।।३२।।
व्यवहृति ही स्थूलावली त्रिपुरसुंदरी।
व्यवहृति ही त्रिनेत्रली कीं विद्याशंकरी।।
त्रिव्यक्तली जणुं श्रीपरा वैखरी।
महायाग भूमी ही ।। ।।३३।।
संध्याकाळी ०७.०५
स्वस्ति श्रिये! शुक्लाध्यासे! शुक्लांम्बरि!
व्यवहृति-विभवे श्रीबीज-शाबरि।।
नवपरागे! नवानुभूति! नवसंवित्स्वरि।
नव नमस्या तुला ।। ।।३४।।
संध्याकाळी ०८.२०
पदार्थ प्रत्ययांची जड जागृति।
संवेदनेची व्यतिरेक पद्धति।।
अबोधजन्या जी भेदानुभूति।
प्रथमाव्याहृति नांव तिचें ।। ।।३५।।
जागृदवस्था जी पदपदार्थनिष्ठ।
जेथ अहंत्ववृत्तीचें स्वरूप सुस्पष्ट।
जेथ विवेकबीज अन्त:प्रविष्ट।
प्रथमा व्याहृति ती ।। ।।३६।।
जाग्रिया ही भूव्याहृति।
कर्तृभानाची मूलगंगोत्री।।
जेथ व्यक्तलेली कर्मसंस्कृति।
फलोन्मुख इहामुत्र ।। ।।३७।।
प्रथम व्याहृतीचे मूलाविष्कार।
जागृदवस्थेचे व्यक्त व्यवहार।।
अंत:करण-चतुष्टयाचे मूर्त विकार।
जागृति ही आद्यव्याहृति ।। ।।३८।।
संध्याकाळी ०८.५५
आत्मनेपद परस्मैपद वस्तुपद।
जेथ त्रिपदें हीं परस्पर संबद्ध।।
जेथली भानें भेदग्रहसिद्ध।
प्रथमा ती व्याहृति ।। ।।३९।।
“परांचिखानि व्यतृणत् स्वयंमू:”।
इंद्रियानुभूतीचा बहिर्मुख प्रारंभु।।
येथली संवेदना विवर्तगर्भु।
जाग्रद् भान अयथार्थ ।। ।।४०।।
‘अरा इव रथनाभौ कला यस्मिन् प्रतिष्ठिता:’।
समस्त अवस्थाभानांची जणूं कीं महामाता।।
व्यतिरेक विवेक विराग - प्रसू जी जाग्रता।
अधिष्ठान तें संव्यवस्थेचे ।। ।।४१।।
जाग्रद् स्थितींत उपलब्धे महासंवित् स्पर्श।
जाग्रत् स्थितींत प्रारंभे संश्रवणोन्मेष।।
जाग्रत् स्थितींत प्रभासे संज्ञानप्रकाश।
स्वस्ति! श्रिये। महाजागरे ।। ।।४२।।
अतृप्त् वासना जेथ सफळती।
निष्कल अनुभूतिलेश जेथ सकळती।।
निर्मूळ कल्पनाभाव जेथ समूळती।
स्वाप्नभान ते व्याहृति द्वितिया ।। ।।४३।।
‘भुव’ र्व्याहृति ही सूक्ष्मदेहीं प्रकटे।
जागृदवस्थेचा परिशेष जेथ पूर्णत: उमटे।।
अव्यक्त आशांचे परिपाक चोरवटे।
स्वप्नानुभव त्या नांव ।। ।।४४।।
रात्रौ ०९.३७
जागृतीचीं विकृत बिंबे।
कार्यकारणभावाचीं उफराटी अंगें।।
वैकल्पिक चित्रें जीं स्वप्नस्थितीच्या संगें।
चित्तचक्षूपुढें थैमानती ।। ।।४५।।
द्वितीया व्याहृति ही सुषुप्तीचें द्वार।
तम: प्रकाशाचा जणुं संधिकाल साकार।।
स्मृति अपेक्षांचा विस्तरला संसार।
निरंकुश भान हें ।। ।।४६।।
‘प्रत्यनुभूंत पुन: पुन: प्रत्यनुभवति’।
सच्च सच्च् सर्वं पश्यति।।
दृष्टमनुपश्यति श्रुतमनुश्रुणोति।
जीवोनुभवति स्व महिमानम ।। ।।४७।।
स्वप्नस्थास दशदिशा मोकळया।
भ्रमरास जणुं फुललेल्या पाकपाकळया।।
कामनापूर्तीच्या कळसलेल्या कळया।
स्वप्नजीव सहजें खुडी ॥ ।।४८।।
जीवेन्द्राचें काल्पनिक इंद्रजाल।
चिति प्रतिभेचें आशाचित्र विशाल।।
अनंतलेला सांततेचा कीं सवाल।
अपरिमेय स्वशक्तीचा ।। ।।४९।।
असंभाव्य भावांची प्रत्यक्षता।
अकल्प्य घटनांची साक्षात् वस्तुता।।
अचिंत्य प्रसंगांची अनुभूति विषयता।
स्वप्नावस्था ही द्वितीय व्याहृति ।। ।।५०।।
रात्रौ १०.००
गगनपुष्पें देखा माळलेलीं।
वंध्येची वंशलता फलभारें अवनतलेली।।
शिंपली अन् रजतभावलेली।
येथ स्वच्छंदे डोळवा ।। ।।५१।।