उन्मनी वाङमय

श्लोक ११ ते २२

सर्वेश्वराची ही भान जान्हवी।

संकल्प स्फुल्लिंगें लोकत्रयांत वर्षवी।

स्थिरवी जीवनात धूत ध्रुव वैभवी!।

भान भास्वर ‘भरणी’ स्फुल्लिंग हे  ।। ।।११।।

 

स्वस्ति श्रिये! उग्रे! शून्ये! युवाने!।

नैर्ऋते! स्वभावस्फोटे! ईशाने!।

नव गार्हस्थ्ये! निवृत्ति स्फुरत्ते! अतिथिप्रेषणे।

नवात्मनि! नवनमस्या तुला!  ।। ।।१२।।

 

संध्याकाळी ०७.२२

 

उदीचि तारके! खुलव तुझा किरण किरण।

कूट तत्त्वस्थे! उभव तुझे शरण शरण।

नारायणि! स्पष्टवी तुझा रजत चरण।

धूत प्रतीक जें गुहागत!  ।। ।।१३।।

 

सर्वत्र वोसंडे धूत पद्मांची दृती।

श्यामोदधींतुन उद्वर्षली कीं मौक्तिकातती।

‘व्यवहृति’ भूमिकेंत सुरेखली कीं ‘व्युत्पत्ती’ ।

निरवस्थ स्वस्वरूपाची  ।। ।।१४।।

 

अवस्था विशेषांचा उत्तंस।

महर्त्याहृति ही सुवर्ण संवित्तीचा स्फुरत् स्पर्श।

निवृत्ति रूपाचा नव नारायण हर्ष।

सर्वंभानांत सासिन्नला!  ।। ।।१५।।

 

पंचक्लेश वृत्तींत निवृत्तला।

पंच विषय प्रवृत्तींत संश्रुतला।

पंच चक्रांत सहस्रारला।

श्रीस्फुल्लिंग प्रवेश  ।। ।।१६।।

 

शून्या, संवित् सूक्ष्मा।

मरा, पश्यंती, मध्यमा।

आणि वैखरी या सप्त्सुषमा।

निरवस्थ स्वस्वरूपतेच्या  ।। ।।१७।।

 

संध्याकाळी ०७.४०

 

स्वस्वरूपता हा नि:स्थंडिलींचा याग।

निर्देह भावैक्यांचा अनुराग।

भस्म भास्वरेचा संभोग नि:संग।

धूत नारायण वैभव हें!  ।। ।।१८।।

 

नवनारायणाची अंत:संगति।

श्रीत अवस्थेची या सहजा व्याहृति।

स्नेहाळल्या, संमतल्या जीवांची व्यवहृति।

क्रिया प्रक्रियांचा समुन्मेष हा!  ।। ।।१९।।

 

दिलें, घेतलें, आणि वाढविलें वैभव।

पाहिला, दाखविला, संकर्मयोगाचा प्रभाव।

सांगितला, ओळखला, धूतनारायणांचा आशीर्वर्षाव।

प्रभातकाल हा ब्राह्मव्योमींचा  ।। ।।२०।।

 

संध्याकाळी ०८.००

 

ब्रह्मणस्पतीचे भूमा प्रज्ञान।

बृहस्पतीचें वाक् संवितोत्थान।

नवनारायणांचें शुक्लध्यस्त संयोगभान।

‘चौरंगल्या’ ब्रह्मदेहीं!   ।। ।।२१।।

 

अभिनव शब्द हा स्फुरला अद्यतनी।

‘अनाहूत बिंब’ हें दीपलें ब्राह्मव्योम्नीं।

अपूर्वश्रुत आदेश हा संचरला श्रीमहाधाम्नीं।

अलख् प्रकाश-माध्यान्ह हा!  ।। ।।२२।।

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