उन्मनी वाङमय

श्लोक १ ते १०

संध्याकाळी ०८.३०

 

वेद, वैष्णव शैव।

आचार त्रयांत या व्यक्ते  पशुभाव।।

भाव दक्षिण वामांत वीरभाव।

सिद्धांत कौलीं दिव्यता  ।। ।।१।।

 

वेद म्हणजे अपवित्राचे पवित्रीकरण।

सप्त् वाचांचें संशोधन।

अवस्थात्रयांचे सुसूत्रीकरण।

वेद श्रेणी ही स्फटिक रूपा  ।। ।।२।।

 

येथ शब्दश्रीचे अश्विनी दर्शन।

अमृतत्त्व बीजाचें निक्षेपण।

प्रथम नक्षत्रीं ‘शं’ विद्येचें अंकन।

वेद म्हणजे ‘धूत श्री’ !  ।। ।।३।।

 

वेद श्रेणींत उपक्रमे शुक्लाध्यास।

वेद श्रेणींत प्रारंभे ‘संज्ञान विलास’।

वेद श्रेणींत निर्वचे ‘अरुपविलास’।

निरवस्थ ‘धूतबिंबाचा’  ।। ।।४।।

 

संध्याकाळी ०८.५०

 

वेदबीज हें शाब्दपीठीं प्रस्फुटे।

जेथ अर्थ साक्षात्कार उमटे।

वागर्थ - संपृक्ति जणुं एकवटे।

अथवा प्रत्यय प्रतीति  ।। ।।५।।

 

संध्याकाळी ०८.५५

 

‘वेदभूमि’ हें कारण तत्त्वांचें स्नानगृह।

‘वेदभूमि’ हा कर्मत्रयाचा निष्कषाय भाव।

वैश्वानर ज्ञापनाचा! ।। ।।६।।

 

‘वैष्णव’ भूमींत भक्तिसुक्ताचा उद्रेक।

स्वस्वरूपीं परानुरक्तीचा अभिषेक।

विशुद्ध प्रीतीचा कीं प्रकाश लेंख।

अष्टांग देशीं प्रकटला!  ।। ।।७।।

 

एकदश इंद्रियांनी स्वादला प्रेम भोग।

अंत:करणींच्या अन्वयवृत्तींचा संयोग।

घटीं घटीं ‘आपूर्यमाणला’ स्वानंदाचा वोघ।

स्वरूपला कीं वैष्णव्यांत  ।। ।।८।।

 

वैष्णव्य हें जिवाजिवाची प्रेमग्रंथी।

वैष्णव्य हें जिवाशिवाची अन्वितस्थिति।

वैष्णव्य हें वैदिकतेची परमागति।

वैष्णव्य माझी विभव मुद्रा  ।। ।।९।।

 

रात्रौ ०९.१३

 

‘विठ्ठलाकृति’ हे साक्षात् ‘श्रीवैष्णव्य’।

अभंगलेला प्रेमभाव।

दिव्य स्वानंदाचा श्रीप्रासाद भव्य।

जेथ ‘श्रीविठ्ठल रखुमा’ मिथुनली!  ।। ।।१०।।

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