उन्मनी वाङमय

श्लोक ११ ते २५

रात्रौ ०९.२०

 

‘प्रेम’ म्हणजे निर्देह ऐक्याची सूत्र वृत्ती।

‘प्रेम’ म्हणजे मूलगंगोत्रीची धारावाही स्मृती।

‘प्रेम’ म्हणजे चिति चंद्रिकेची रती।

श्याम मेघाशीं महाजीवनाच्या   ।। ।।११।।

 

रात्रौ ०९.२८

 

प्रेम वृत्तींत अल्मभूमांचें निमज्जन।

प्रेम वृत्तींत एकाकारती थोर आणि सान।

प्रेम वृत्तींत भेदग्रहांचे उच्चटन।

‘प्रेम’ म्हणजे अद्वैतसिद्धि`!  ।। ।।१२।।

 

रात्रौ ०९.३६

 

‘प्रेम’ हा पांडुरंग कीं शुक्लाध्यस्त।

पुंडरीक वा निजहृदयस्थ।

आनंदकोश कीं प्रत्यगवस्थ।

प्रेम वृत्तींत सगुणला।। ।।१३।।

 

संविद् संस्कारांचा रजतरास।

सहज संज्ञावित वृत्तींचा वाग्विलास।

सकर्म प्रयोग शतकांचा समविकास।

प्रेम भाव हा ‘स्थिर भानाचा’।। ।।१४।।

 

यदा पश्य पश्यते रूक्मवर्ण।

कर्तारं ईशं पुरूषं ब्रह्मयोनीम्।

प्रेम-श्रेणीं सत दा समारूढ:।

अतिब्रह्मं: पिप्पलं स्वादु अत्ति  ।। ।।१५।।

 

रात्रौ ०९.५७

 

वैष्णव्य योग हा नाजुकी गोठी।

महाभाग्यांची कुशला वृष्टि।

श्याम सौंदर्याची सुरम्य सृष्टी।

पर्जन्यली जेथ प्रेम चंद्रिका  ।। ।।१६।।

 

‘प्रत्यक्ता’ म्हणजे निर्वृत्तिकतेची साक्षात् वृत्ती।

वा, स्वस्वरूपाची अवस्थास्फूर्ती।

महाभानाची निष्कल निरंजित मूर्ती।

सगुणलें जणु प्रेमतत्त्व!   ।। ।।१७।।

 

वैष्णव्ययान हा प्रेमळांचे साठीं।

पांक्त-प्रेमळ जे दैवें साकारले देह वैकुंठी।

जेथल्या महान्वयाच्या महाकारण पृष्ठीं।

श्याम प्रेमाचें याग स्थंडिल!  ।। ।।१८।।

 

रात्रौ १०.१८

 

प्रसन्न मेघ वोळंगले प्रेमजलें।

कारण पृष्ठीं तुझ्या अमृतनीरें ते तुषारले।

‘शं’ परानुरक्तिचे भाव संचरले!।

प्रेम वैराज्य स्थिरावलें!  ।। ।।१९।।

 

रात्रौ १०.३०

 

शैव भूमिका हा ज्ञान - धवलगिरी।

सोलल्या सोज्वळ प्रज्ञा, आणि प्रज्ञानेश्वरी।

यांची लीला कौतुकें संज्ञान व्यापारीं।

प्रवर्तली स्वयं स्फूर्तीनें  ।। ।।२०।।

 

‘शैवभूमि’ ही परमोच्य संज्ञान कला।

येथ वैष्णव्ययान सफलतया विराजला।

येथ परंप्रेम पूर्ण प्रीतला।

श्यामध्यान वषट्कारलें!  ।। ।।२१।।

 

रात्रौ १०.४३

 

वैष्णव्याचा विभुवषट्कार ।

शैव श्रेणी ही निवृत्तिज्ञानाकार!।

येथले पूर्णभान ‘कर्पूर गौर’ ।

मत्यारूढ कीं जीवन लहरी!  ।। ।।२२।।

 

रात्रौ १०.४५

 

‘शैव’ ही श्री-चिदन्नपूर्णा।

शुक्लोत्तम सौभाग्य निकेतना।

इंद्रायणी जणुं मत्स्यस्वरूपध्याना।

आचार भूमिका ही तृतीय  ।। ।।२३।।

 

तृतीय नेत्राची शांभवी दीप्ती।

‘शं’ हीरकाची शुभ्र द्युती।

ज्ञानेश्वर्याची निवृतागती।

शैव भूमि ही ज्ञान विशिष्टा  ।। ।।२४।।

 

ज्ञान ज्वालेंत जीव कीटकांनों मरूं या!।

ज्ञान पवनांत जीवसख्यांनो विरूं या!।

संज्ञान स्फुरत्तेंत लाडक्यांनो स्फुरूं या।

भरारूं या शिवसंहितेंत या!  ।। ।।२५।।

रात्रौ १०.५५

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