उन्मनी वाङमय

श्लोक ४० ते ५१

‘नर्ते स्याद् विक्रियां दु:खी।

साक्षिता का विकारिण:।।

धीविक्रिया-सहस्त्राणाम्।

साक्ष्यतोSहं अविक्रिय:’।। ।।४१।।

 

दु:ख म्हणजे एक विकृति।

साक्षित्वीं विकृती नुरे संस्थिति।।

बुद्धिविकार साक्षितेंत निरवस्थती।

साक्षित्व म्हणजे स्वस्वरूप  ।। ।।४२।।

 

‘दु:खी यदि भवेद् आत्मा।

क: साक्षी दु:खिनो भवेत्।

सुखदु:ख प्रमाता हि।

प्रबोध: निरवस्थित:’  ।। ।।४३।।

 

‘अतोन्यदार्ता’चीं संस्फूर्ती   ।

म्हणजे सोपाधिक अवस्थांची निर्यती।।

‘सद्’ इति अस्तिता मात्रा धातुचिति:।

व्युत्पत्ति विद्यया प्रदृष्टा  ।। ।।४४।।

 

समारूढ होऊन अधिष्ठानीं  ।

पुन: प्रकाशे स्वानुभूति जी किरण किरणीं।।

भावबुद्धि दिवृत्तींस यथामूल्य संयोजोनि।

व्यवहरे शीर्षावस्था  ।। ।।४५।।

 

शीर्षभूमि ही संव्यवस्थिति।

निरवस्थ जेथ स्वस्वरूपली महाचिति।।

नि:स्वरली निरूक्तली श्री महागीति।

निर्द्वंद्व अद्वैत सिद्धि ही  ।। ।।४६।।

 

‘पंच मिथ्यात्वें’ येथ स्वयंमिथ्यलीं।

अखंडार्थ लक्षणा स्वस्वरूपलक्षणली।

सुसत् संकर्में संवित् स्वागतीं सामोरलीं।

उत्तंस हा निरवस्थानाचा  ।। ।।४७।।

 

संव्यवस्थिति नव्हे शून्याकार।

संवित् स्पष्ट चितीचा तो महाविष्कार।।

महाजागराचा ऊर्जस्वल प्रकार।

अमृतानुभव स्वयं पूर्णतेचा   ।। ।।४८।।

 

खुलवी पुष्पाची पाकळी ।

प्रगटवी श्रेणी श्रेणीची सोनसाखळी।।

पाड जोती ज्योतीची कोजळी।

संविद् ज्वाला  भडकू दे  ।। ।।४९।।

 

शतस्फुल्लिंगांची ही शततारका।

संव्यवस्थित संपूर्णजीवनदृशा निरखा।

आणि अनुभवा कौस्तुभ कौतुका।

निरवस्थ स्वस्वरूपाच्या   ।। ।।५०।।

 

संध्याकाळी ०६.३७

 

नित्य दर्शन शततारकांचें।

विधान हें महाविकासाचें।।

अभिसिंचन श्री सर्वं कुशल वृष्टीचें।

प्रतिज्ञाता फलश्रुतिस्यिम्।। ।।५१।।

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