व्यवहृतींत कर्मप्रतिकर्मांचें प्रकाशन।
व्याहृतींत कर्ममूल अवस्थाभानांचें परीक्षण।।
अवस्थाततींत सूत्राकारल्या चित्केन्द्रांचें दर्शन।
व्याहृति शास्त्र आलोचिता ।। ।।३१।।
अवस्थात्रय साकारलें स्वस्वरूपांत।
व्याहृतित्रय मूर्तलें महर्जीवनांत।।
‘मह:’ व्याहृति निरवस्थ अनुभवांत।
अखंडार्थें व्यक्तली ।। ।।३२।।
थांबवूं या तुष्टि संशोधन।
शीर्षवू या नि:स्वहेत जीवन।।
अनुभवू या निरवस्थ चिद्भान।
महर्व्याहृति ज्या नांव ।। ।।३३।।
महर्व्याहृतींत सूत्रात्म्याचें दर्शन।
अनुभवा, परि नसूं द्या तें निर्गमन।।
अनिष्टा पासुनी भित्रें पलायन।
न भेटवील सूत्रतत्त्व ।। ।।३४।।
अनिष्टें, दु:खें, दुर्दैव विलसितें।
सामोरूनि स्पष्टवा त्यांची अन्तस्तत्त्वें।।
हेत शोधन, पृथक्करण, प्रज्ञा किरणें।
करूनि ओळखा मूलानुभूति ।। ।।३५।।
दुपारी ०३.३०
डोळिवणें जीवनजालाचा अधिष्ठानतंतु।
जाणणे स्वस्वरूपाचा आद्यहेतु।।
शोधणें मूलानुभूतीचा मूळधातु।
या नांव व्युत्पत्ति- क्रिया ।। ।।३६।।
शब्द म्हणजे उद्गार।
अनुभव म्हणजे अवस्थाविष्कार।।
धात्वर्थाचा वा अवस्थाधिष्ठानाचा साक्षात्कार।
या नांव व्युत्पत्ति विद्या ।। ।।३७।।
शब्दमात्राचा शोधा धात्वर्थ।
प्रत्यवस्थेचा निरखा अधिष्ठान हेत।।
धातु म्हणजेच अधिष्ठान साक्षात।
धारणा तत्त्व मूलाधार ।। ।।३८।।
दुपारी ०३.४५
निष्कल निर्विकार निरंजन।
निरालंब निरवकाश निरंकन।।
निर्वृत्त निर्मयूख निर्निकेतन।
स्वस्वरूप हें अधिष्ठान धातू ।। ।।३९।।
संध्याकाळी ०५.३०
निरवस्थ साक्षित्व ही व्युत्पत्ति।
महाजीवनाची मूलधातु स्थिति।।
व्याहृति विद्येची परिणति।
व्युत्पत्ति विद्येंत ।। ।।४०।।