उन्मनी वाङमय

श्लोक ११ ते २०

जागरितस्थानो बहि:प्रज्ञ: सप्तङ्ग:।

वैश्वानर: एकोनविशंतिमुख: स्थूल भुक्।।

प्रथम: पाद: जाग्रद्व्याहृते: व्यतिरेक संङ्ग:।

चतुष्कलस्य जीवात्मन:।। ।।११।।

 

स्वप्नस्थानो अन्त:प्रज्ञ: सप्तंङ्ग:।

एकोनविंशति मुख: तैजस: प्रविविक्तभुक्।।

द्वितीय: पाद: स्वप्नव्याहृते: वासनासङ्ग:।

चतुष्कलस्य जीवात्मन:।। ।।१२।।

 

मूर्धादी सप्तंङ्गे म्हणजे सप्तंङ्ग  ।

इंद्रिय दशक प्राणपंचक करणचतुष्टय।।

हाच जीवकेन्द्राचा एकोणीस मुख संघ।

गूढ शब्दांची विवरणा ही  ।। ।।१३।।

 

सुषुप्त्स्थान एकीभूत: प्रज्ञानघन।

चेतोमुख: प्राज्ञ: आनन्दभोजन:।।

तृतीय: पाद: सुषुप्त् व्याहृते: विस्मृति सङ्ग:।

चतुष्कलस्य जीवात्मन:  ।। ।।१४।।

 

दुपारी ०१.०५

 

अदृश्यं अव्यवहार्यं अग्राह्यं।

अलक्षणं अचिन्त्यं अव्यपदेश्यम्।।

एकात्मप्रत्ययसारं प्रपंचोपशमं शान्तं।

तुरीयावस्थस्य जीवस्य स्वस्वरूपम्  ।। ।।१५।।

 

भूव्याहृति जाग्रदवस्था।

भुव:, सुवर्-स्वप्न, सुषुप्त।।

मह: ही तुरीयस्वरूपता।

जीव केन्द्र चितिची  ।। ।।१६।।

 

जाग्रदवस्थेचा स्वामी ‘वैश्वानर’।

स्पप्नीचा ‘तैजस’ सूक्ष्मविषय भोक्तार।।

सुषुप्तीचा ‘प्राज्’' सहजानन्दकार।

तुरीयेचा निष्कल एकात्म प्रत्ययरूप  ।। ।।१७।।

 

अ, उ, म, या त्रिमात्रा।

जाग्रद् स्वप्न सुषुप्तवस्था।।

तुरीयज्ञापक प्रस्फुटार्धमात्रा।

प्रणवविद्या अवस्थार्थ दीपिका  ।। ।।१८।।

 

सुषुप्ति म्हणजे प्रगाढ निद्रा।

अबोधस्थिति ही मोहसुभद्रा।।

जीवोSहं भानाची उफराटी मुद्रा।

प्रलयलेला येथ अहंभाव  ।। ।।१९।।

 

सुषुप्तींत अखंडा मोदवृत्ति।

मूलचितींत जीवचितिची संगति।।

‘नाज्ञासिषम्’ भावार्थाची प्रत्यग् मूर्ति।

प्रत्यभिज्ञेचा कारणविशेष  ।। ।।२०।।

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