उन्मनी वाङमय

श्लोक ४१ ते ५१

‘अरा इव रथनाभौ कला यस्मिन् प्रतिष्ठिता:’।

समस्त अवस्थाभानांची जणूं कीं महामाता।।

व्यतिरेक विवेक विराग - प्रसू जी जाग्रता।

अधिष्ठान तें संव्यवस्थेचे  ।। ।।४१।।

 

जाग्रद् स्थितींत उपलब्धे महासंवित् स्पर्श।

जाग्रत् स्थितींत प्रारंभे संश्रवणोन्मेष।।

जाग्रत् स्थितींत प्रभासे संज्ञानप्रकाश।

स्वस्ति! श्रिये। महाजागरे  ।। ।।४२।।

 

अतृप्त् वासना जेथ सफळती।

निष्कल अनुभूतिलेश जेथ सकळती।।

निर्मूळ कल्पनाभाव जेथ समूळती।

स्वाप्नभान ते व्याहृति द्वितिया ।। ।।४३।।

 

‘भुव’ र्व्याहृति ही सूक्ष्मदेहीं प्रकटे।

जागृदवस्थेचा परिशेष जेथ पूर्णत: उमटे।।

अव्यक्त आशांचे परिपाक चोरवटे।

स्वप्नानुभव त्या नांव  ।। ।।४४।।

 

रात्रौ ०९.३७

 

जागृतीचीं विकृत बिंबे।

कार्यकारणभावाचीं उफराटी अंगें।।

वैकल्पिक चित्रें जीं स्वप्नस्थितीच्या संगें।

चित्तचक्षूपुढें थैमानती  ।। ।।४५।।

 

द्वितीया व्याहृति ही सुषुप्तीचें द्वार।

तम: प्रकाशाचा जणुं संधिकाल साकार।।

स्मृति अपेक्षांचा विस्तरला संसार।

निरंकुश भान हें  ।। ।।४६।।

 

‘प्रत्यनुभूंत पुन: पुन: प्रत्यनुभवति’। 

सच्च सच्च् सर्वं पश्यति।।

दृष्टमनुपश्यति श्रुतमनुश्रुणोति।

जीवोनुभवति स्व महिमानम ।।  ।।४७।।

 

स्वप्नस्थास दशदिशा मोकळया।

भ्रमरास जणुं फुललेल्या पाकपाकळया।।

कामनापूर्तीच्या कळसलेल्या कळया।

स्वप्नजीव सहजें खुडी ॥ ।।४८।।

 

जीवेन्द्राचें काल्पनिक इंद्रजाल।

चिति प्रतिभेचें आशाचित्र विशाल।।

अनंतलेला सांततेचा कीं सवाल।

अपरिमेय स्वशक्तीचा  ।। ।।४९।।

 

असंभाव्य भावांची प्रत्यक्षता।

अकल्प्य घटनांची साक्षात् वस्तुता।।

अचिंत्य प्रसंगांची अनुभूति विषयता।

स्वप्नावस्था ही द्वितीय व्याहृति  ।। ।।५०।।

 

रात्रौ १०.००

 

गगनपुष्पें देखा माळलेलीं।

वंध्येची वंशलता फलभारें अवनतलेली।।

शिंपली अन् रजतभावलेली।

येथ स्वच्छंदे डोळवा  ।। ।।५१।।

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