उन्मनी वाङमय

श्लोक ३१ ते ४०

अव्यक्त हस्ते पुसती ते असुं।

अज्ञातशब्दे उधळिती ते हंसु।।

अस्पष्ट त्यांचा संकर्म-स्पर्शुं।

जीवकोटीस प्रकर्शवी  ।। ।।३१।।

 

संकर्म बिंबांची धवलिमा।

हळुहळुं शुक्लवी सु-सत्कर्मा।।

प्रस्फुरे पसरीत वैभव सुषमा।

स्वकीय दीप्तीची  ।। ।।३२।।

 

व्यवहृति ही स्थूलावली त्रिपुरसुंदरी।

व्यवहृति ही त्रिनेत्रली कीं विद्याशंकरी।।

त्रिव्यक्तली जणुं श्रीपरा वैखरी।

महायाग भूमी ही  ।। ।।३३।।

 

संध्याकाळी ०७.०५

 

स्वस्ति श्रिये! शुक्लाध्यासे! शुक्लांम्बरि!

व्यवहृति-विभवे श्रीबीज-शाबरि।।

नवपरागे! नवानुभूति! नवसंवित्स्वरि।

नव नमस्या तुला   ।। ।।३४।।

 

संध्याकाळी ०८.२०

 

पदार्थ प्रत्ययांची जड जागृति।

संवेदनेची व्यतिरेक पद्धति।।

अबोधजन्या जी भेदानुभूति।

प्रथमाव्याहृति नांव तिचें ।। ।।३५।।

 

जागृदवस्था जी पदपदार्थनिष्ठ।

जेथ अहंत्ववृत्तीचें स्वरूप सुस्पष्ट।

जेथ विवेकबीज अन्त:प्रविष्ट।

प्रथमा व्याहृति ती  ।। ।।३६।।

 

जाग्रिया ही भूव्याहृति।

कर्तृभानाची मूलगंगोत्री।।

जेथ व्यक्तलेली कर्मसंस्कृति।

फलोन्मुख इहामुत्र  ।। ।।३७।।

 

प्रथम व्याहृतीचे मूलाविष्कार।

जागृदवस्थेचे व्यक्त व्यवहार।।

अंत:करण-चतुष्टयाचे मूर्त विकार।

जागृति ही आद्यव्याहृति  ।। ।।३८।।

 

संध्याकाळी ०८.५५

 

आत्मनेपद परस्मैपद वस्तुपद।

जेथ त्रिपदें हीं परस्पर संबद्ध।।

जेथली भानें भेदग्रहसिद्ध।

प्रथमा ती व्याहृति   ।। ।।३९।।

 

“परांचिखानि व्यतृणत् स्वयंमू:”।

इंद्रियानुभूतीचा बहिर्मुख प्रारंभु।।

येथली संवेदना विवर्तगर्भु।

जाग्रद् भान अयथार्थ  ।। ।।४०।।

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