संध्याकाळी ०५.४५
भूतकोटिकल्पांचें संयुक्त ‘संचित’।
भविष्यत् विश्वांचें ‘क्रियमाण’ शाश्वत।।
वर्तमान जीवन सहस्त्रकांचें ‘प्रारब्ध’ अनंत।
व्यवहृति भूमींत त्रिपुरलें कर्म ।। ।।२१।।
बहिर्याग आंतरयाग महायाग।
त्रियागांचे या स्थंडिल अभंग।
कृष्ण रक्त धवलांग।
त्रिविधली व्यवहृति भूमी ।। ।।२२।।
कृष्णांग म्हणजे जडकर्मभूमि।
रक्तांग म्हणजे जडजड कर्मभूमि।।
धवलांग म्हणजे शुक्लाध्यास भूमि।
व्यवहृति भूमीचे त्रिनेत्र हे ।। ।।२३।।
कृष्णांगांत स्फोटले कामाचार।
रक्तांगांत गोठले बौद्धिक अहंकार।।
धवलांगांत लोटले संज्ञान स्फुरत्कार।
तृतीय नेत्र हा गौरकिरण ।। ।।२४।।
व्यवहारांत व्यष्टि समष्टिंचा समुत्कर्ष।
व्यवहारांत एकादश इंद्रियांचा समुल्लास।
व्यवहारांत क्रिया प्रतिक्रियांचा विलास।
महाबीज भूमिका ही ।। ।।२५।।
कृष्णकोणीं व्यवहरती भोगभोगी।
रक्त कोणीं संचरती भोगत्यागी।।
शुक्लकोणीं विहरती संकर्मयोगी।
लोकसेवक अवधूत ।। ।।२६।।
संकर्म हें विश्वोत्कर्षाची अंगभूत कृति।
सत्कर्म म्हणजे बीजवी जें समष्टि प्रगती।
सुकर्म म्हणजे व्यक्तिविकासाची संप्राप्ती।।
कर्मविद्या ही अभिनवा ।। ।।२७।।
‘विगतं श्व:’ नुरे उद्या त्या नाव विश्व।
वर्तमानीं स्फुरे तेथ जें शाश्वतोद्भव।।
जयांत जडाजड कोटींचा प्रत्यक् स्वभाव।
संयुक्तभावे समावेशला ।। ।।२८।।
महायाग म्हणजे विश्वमूर्तीचें अर्चन।
आंतरयाग म्हणजे समष्टिसावित्रीचें सेवाविधान।।
बहिर्याग हा यर्थातत: स्वव्यक्ति विकसन।
त्रियागांचे तत्त्वार्थ हे ।। ।।२९।।
संध्याकाळी ०६.४५
हिरवे चाफे ते महायागी।
अभावितपणें, सुगंधविती जीवांस, जे संकर्मयोगी।।
विश्वतत्त्वास विकसविणारे विरागी।
अंधारीं त्यांच्या यागगुहा ।। ।।३०।।