उन्मनी वाङमय

श्लोक ११ ते २०

मानव्यात अनुभविणें देवत्व।

घनवटल्या मूर्तींत अवकाशतत्त्व।

स्थाणु देशीं व्यक्तणें प्रेरकत्व।

आरोप क्रिया ही     ।। ।।११।।

 

लतेवरीं शिंपडणें तुषार।

मौक्ति कास वेजणें आरपार।

हिरकणीसी कोपविणारे परिप्रहार।

या नांव संस्कार क्रिया   ।। ।।१२।।

 

सकाळी १०.५८

 

शिलाखंडासी मूर्तविणें।

सुवर्णासी शोध - शोधणें!

इंद्रीयग्रामासी पुनीतणें।

या नाम ‘संस्कार’  ।। ।।१३।।

 

ज्ञानाज्ञानासि भावविणें।

वृत्तिवृतीसि निवृत्तणें।

अहं अहंला निरवस्थणें।

या नाम ‘संस्कार’  ।। ।।१४।।

 

पृष्ठा पृष्ठावरीं उठविणें नवलहरी।

काष्ठा काष्ठावरी रंगविणें रंगवल्लरी।

संज्ञान मुद्रा संकल्पिणें प्रज्ञे प्रज्ञेवरीं।

या नांव संस्कार  ।। ।।१५।।

 

क्रिया गर्भांत वोपणें दीधीतन।

प्राकृत शब्दांत वितरणें व्याकरण।

गुंतल्या भावनांचे प्राज्ञलेंलें पृथक्करण।

या नांव संस्कार    ।। ।।१६।।

 

नियोजन वैश्वानर - विद्येचें।

वैश्विक वैयक्तिक अंत:कूटस्थांचें।

संश्रवणन जेथ क्रमत: निर्वचे।

संस्कारशास्त्र तें धूतगुह्य!  ।। ।।१७।।

 

‘अध्यास’ हा तुरीय विशेष।

श्रीउपासनेचा श्रियाळ अंश।

संश्रवण अवस्थेचा विभास।

प्रतीकराज हा!  ।। ।।१८।।

 

संपद, आरोप, संस्कार, अध्यास।

प्रतीक शास्त्रींचें चतु:सूत्र चरणांश।

वैश्विक वैयक्तिक चिद्भानांचा क्रमोत्कर्ष।

चौरंगमूर्तींत चौफाळला  ।। ।।१९।।

 

प्रतीतव्याचें प्रकट देहीं।

पदार्थाच्या भान प्रवाहीं।

प्रमेयाच्या प्रत्यक्ष आविर्भावीं।

अतद्दर्शन अध्यास हा!  ।। ।।२०।।

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