उन्मनी वाङमय

श्लोक १ ते १०

संध्याकाळी ०६.००

 

भाव स्फुरत्तेची आंतर निर्झरिणी।

निरस्तली शब्द मेघावरणीं।

नि:श्वासिति जीवभानें कोंदटल्या व्योम्नीं।

कुंद, धुंद वातावरण! ।। ।।१।।

 

मिटल्या डोळयांत निक्षेपूं तेज।

थबकल्या वृत्तीं जन्मवूं परिव्राज।

अनुरागीं एकवटवूं श्रीवैराज।

एकवटणें माझा सहजविधीं!  ।। ।।२।।

 

संध्याकाळी ०६.१३ ते ०६.१५

 

झुंजार मी माझ्या शास्त्रशास्त्रकला।

विच्छेदिति पंच पंच वृत्तिमाला।

‘निवृत्ति’ भाव सहजें समुत्कर्षला।

भक्ति सुख गायकांसाठीं! ।। ।।३।।

 

अमृतानुभवुनी श्रीज्ञानैश्वर्य।

वटेश्वरीं तत्त्वगुह्य जें प्रचार्य।

रुपवुनी जें स्फुटविलें तें अविकार्य।

व्यक्तलें पंचष्ठिविकार !  ।। ।।४।।

 

संध्याकाळी ०६.२५

 

भावस्फुरत्तेचें प्रमोद कौतुक।

घनवटलें, त्याचा रेणु एक एक।

शब्ददेह आत्मवी जयाचा प्रकाश लेख।

डोळवा हिरण्य मुकरीं  ।। ।।५।।

 

हिरण्य मुकरांत जीव कोटि संघटला।

तेथ परिवर्तिति भाव ज्योत्स्ना संपुटल्या।

विजय केतु आमुचा, दुग्ध श्रोतसीं ज्या प्रस्फुटल्या।

अल्पाकार महाशक्ति!   ।। ।।६।।

 

भावस्फुरतेची निमिषैक लकाकी।

झळकतांच बोथटलेंल्या बुद्धिसायकीं।

तेजाळे तेथ प्रतिभाशक्ति अलौकिकी।

महाजागर सासिन्नला!  ।। ।।७।।

 

संध्याकाळी ०६.३५

 

चला वृत्ति वृत्तिला निवर्तीत।

उठा स्फूर्ति - स्फूर्तिला प्रवर्तीत।

अनुभवा भाव - भाव हा ‘गार्हस्थ्य’।

निरवस्थलेला निवृत्तलेला!  ।। ।।८।।

 

महाभाव हा, न कीं विनयजन्य।

महायाग हा, येथ हविरग्नि अनन्य।

निस्तंभ गृहस्थांचें श्रियांळलेंलें दैन्य।

निरवस्थ निवृत्त गार्हस्थ्य!  ।। ।।९।।

 

येथिंचे विनाश विधायक।

येथिंचे संतर्पण स्वसंतोषकारक।

येथिंते अंधार तेजस प्रज्ञा प्रदीपक।

येथ अंतर्विरोध समस्यले!  ।। ।।१०।।

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