उन्मनी वाङमय

श्लोक २१ ते २९

चला, चढा गांठा गंगोत्रि।

उठा, ओळखा उर्ध्ववा ही संदेश-सावित्री।

गौरावधूतांची संकल्प गायत्री।

अष्टादश विद्या ही प्रकृष्टा    ।। ।।२१।।

 

‘पुनर्वसू’ हे धूत विद्या प्रतीक।

कर्पूर ज्वाला येथिंचा महामरव।

दुग्धांगुली-स्पर्श येथला संज्ञानोद्दीपक।

त्रीजन्मा, उपासक येथला  ।। ।।२२।।

 

असंस्कृत, अद्यीज, परित्यक्त।

यांनाही त्रिजन्मविती संकल्पावधूत।

श्री-श्री-श्री वंशाचे गोत्रजात।

निर्वर्णलेले अनाश्रमी ।।२३।।

 

रात्रौ ०९.१५

 

संज्ञानितांचें हें महाजातक।

संकल्पविणार आम्ही अवधूत भिक्षुक।

विंधल्या, नथ्निल्या अनाथांचे संरक्षक।   

अविंध आम्ही स्वच्छंद!  ।। ।।२४।।

 

‘रं’ बीजपीठीं सहजारोह।

‘यं’ बीजपोटीं पुनरावरोह।

मेळविणें हा गतिस्थिति भाव।

सहस्त्र जन्मसिद्धि ही!  ।। ।।२५।।

 

रात्रौ ०९.२५

 

सुषुम्ना वाहिनीचें आज्ञाsस्थ स्पंदन।

इडा पिंगलांचे विशुद्धित समीकरण।

कूर्मनाडींत पुन: संतर्पण।

पुनर्निवेश आज्ञेंत   ।। ।।२६।।

 

धुतलें वस्त्र पांघरीन आतां।

स्नातले अंग कर्पुराकार सर्वथा।

सुवर्णले पादरज मिरवीन माथा।

इहामुत्र सर्वदा   ।। ।।२७।।

 

दुग्धाकार फेसल्या आंतर्वृत्ती।

अंतर्मुखवितां क्षणमात्र नेत्रदीप्ती।

महापवन तत्त्वाची स्थितिगति।

उपलब्धे यथावश्यक!  ।। ।।२८।।

 

उपासना ही भाव विनयनाची।

विद्या ही स्वभाव संगोपनाची।

शरणागति येथ निदेह निराकारतेची!

विराग भोग हा महाशून्यस्वाचा!।। ।।२९।।

 

रात्रौ ०९.३६

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