उन्मनी वाङमय

श्लोक १ ते १०

स्वस्तिश्रिये! प्रज्ञें! ऋतंभरे!।

भावसहचरि, भावोत्कर्षिणि भाव भास्वरे!।

महाजीवनाच्या श्री-श्रुतिस्वरे!।

स्वस्ति श्री- अवधूत चंद्रिके!  ।। ।।१।।

 

प्रत्यक् कर्म माझा संदेश।

प्रत्यक्तत्त्व माझा तत्त्वनिवेश।

प्रत्यगनुभव माझा वास्तव्यदेश।

विस्ताररला विभु-गुणे  ।। ।।२।।

 

पृथक्-क्रिया जीवनासी निचेष्टवी।

शब्दज्ञान प्रज्ञेसी निर् मूळवी।

तर्कगुंफा महादर्शन अस्तवी।

जगीं त्रिदोष उत्त्थानले  ।। ।।३।।

 

प्रमादास न्याहाळा चित्-चक्षूनें।

पापकर्म सामोरा बुद्धिवृत्तीनें।

शंकास्थल शून्यवा प्रत्यग्दीप्तीनें।

त्रिपदा ही धूत सरस्वती  ।। ।।४।।

 

ममत्त्व भावनेचा विकार।

अंशानुभूतीची सीमा स्थिर।

तेथ महाचितिचा पूर्णावतार।

केउता प्रकटे?  ।। ।।५।।

 

डोळवतांच हेतुबद्ध अल्पध्येयें।

तिरोभावता भूमावृत्तीचा निष्कलकाय।

महाचिती ही स्वस्वरूप-समवाय।

संबंधातीत स्वबंध  ।। ।।६।।

 

पोळत्या वाळूंतून परतला पाय।

पेटल्या वणव्यांतून निवर्तली गाय।

अर्भक मृत्यूनें किंचाळली दीन माय।

वेदनाजन्य कृति विस्तार हा  ।। ।।७।।

 

तैशीच आमुचीं धर्मशास्त्रे।

आणि प्रादेशिक नियमतंत्रें।

समष्टि धारणेची कृत्रिम यंत्रे।

जणुं कीं रुग्णोपचार।। ।।८।।

 

सकाळी ११.४५

माझें तत्त्वशास्त्र ऊर्जस्वल।

जेथला आविष्कार सहजश्रियाळ।

वोसंडल्या महास्फूर्तीचा कल्लोळ।

निहेतुक स्वभावोद्गार!  ।। ।।९।।

 

फुलेल्या पारिजाताची दृति।

परिपूर्णल्या प्रीतीची प्रवृत्ती।

सहजउदेल्या प्रतिभेची स्फूर्ती।

‘आदर्शाचार’ या नाम!  ।। ।।१०।।

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