उन्मनी वाङमय

श्लोक ११ ते २०

एक दुजा आर्तीत जे उद्भवे।

एक दुजा तुष्टिभाव जें पावे।

विकारचक्र तें मोहमूल ओळखावें।

न तेथ चितिस्थिति  ।। ।।११।।

 

एका आर्तीतूनी दुजी आर्ती।

एका मृतींतूनि दुजी मृती।

अनवस्थ ही पुच्छ प्रगती।

तेथ केउतें समाधान!  ।। ।।१२।।

 

विस्तारलेलें विविध विधी।

संपन्नलेल्या सहस्रसिद्धी।

रुढलेल्या राजकीय ऋद्धी।

निर्गमनें ती विकारजन्य  ।। ।।१३।।

 

कित्येक साक्षात्कारी झोंबले।

कित्येक मोक्षासाठीं उलटे लोंबले।

कित्येक मादकतेसाठीं भक्तिरंगले।

निर्गमनें हीं विकारजन्य  ।। ।।१४।।

 

अहो! पळपुट्या सत्यशोधकानो!

अहो! भांबावल्या आत्मवंचकांनों।

अहो स्वयंमन्य विज्ञातृ दांभिकांनों।

स्वपर हत्त्यारांनो! स्तब्ध व्हा!  ।। ।।१५।।

 

अवरोधा, थांबवा हें हत्याकांड।

पहा, दाखवा माजलेंलें थोतांड।

उजळा, उजळवा जीव कोटि ब्रम्हांड।

होऊं या ऋतद्रष्टे! सत्यं वक्ते!  ।। ।।१६।।

 

व्योमहस्तें सोडूं आम्ही संकल्प।

प्रत्यक्कर्मे मोडूं आम्ही विकल्प।

उभवूं महाचितिचे रत्नतल्प।

पतिजीव गेहीं!  ।। ।।१७।।

 

दुपारी १२.२७

 

न बोलल्या शब्दीं आम्ही देतो शहाणीव।

न व्यक्तल्या विभवे नटली आमुची राणीव।

न पदार्थ - निष्ठा आमुची जाणीव।

स्वयंप्रकाश महाभान हें!  ।। ।।१८।।

 

दुपारी १२.३२

 

सदातर्नाची सुवर्ण मेखला।

समाधिमण्यांची सनातन शृंखला।

प्रज्ञासूत्रित प्रेमपुष्पमाला।

फेकली येथें  ।। ।।१९।।

 

प्रयोग सुयोग प्रति योग।

त्रिपुटि ही तत्त्वशास्त्राची सांग।

जणुं कीं शीर्षत्रयांचा प्रयाग।

किंवा नेत्रत्रय श्रीआदींचें  ।। ।।२०।।

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