उन्मनी वाङमय

श्लोक २१ ते ३२

प्रतिष्ठावें जें जें भान।

तें तें होतसें अस्तमान।

अभिनव अवस्थेंत अंतर्धान।

प्रत्येक पूर्वावस्थेचें  ।। ।।२१।।

 

अनुभवितां निष्कलतेचें तत्त्व।

दुजी अभिनव कला होई संप्राप्त्।

डोळवितां शून्य होई पुनर्व्याकृत।

अभिनवा वर्तुलाकृती  ।। ।।२२।।

 

चेववूं जातां दिसे दुजी स्वप्नसृष्टी।

निर्गुणवितां सत्यतेस, पुन:साकारे ‘संकल्पमूर्ती’।

वाणी नि:शब्दविता नवनाद संतती

प्रस्फुरे सहजतया  ।। ।।२३।।

 

संध्याकाळी ०८.१८

 

गुंफा ही अवस्था - भानांची।

कथा ही अनुस्यूत अनुभव रज्जूंची।

वनस्थली श्रीदर्शन लतिकांची।

निरवस्थित चित्स्फूर्ती! ।। ।।२४।।

 

प्रत्यक्तेंत केंद्रवा प्रज्ञाशक्ती।

स्वानुभवीं बिंबवा तत्त्वदीप्ती।

स्वप्रमेयी होऊं द्या तत्त्वानिष्पत्ती।

प्रमेय हेंच अर्धसत्य ।। ।।२५।।

 

पूर्व पक्षांत ओळखा उत्तर पक्ष।

देहानुभवीं डोळवा आत्मसाक्ष।

पदार्थज्ञानांत हुडका अपरोक्ष।

उफराटी ही प्रक्रिया!   ।। ।।२६।।

 

न, मी मूल तत्त्वें प्रत्यक्षवीन।

न मी मूलरूपें प्रकाशवीन।

न मी मूल हेतूं प्रकटवीन।

स्वेच्छया स्वशत्तया  ।. ।।२७।।

 

संध्याकाळी ०८.४३

पालवीन मी तुमचे ओठ।

उन्मेषीन मी तुमची दृष्ट।

इच्छिला जो गुह्यस्फोट।

त्याचे तूं उपकरण!  ।। ।।२८।।

 

प्रक्रिया ही निगूढ माझी।

परिप्रश्नीं प्रत्युत्तराची रुजी।

मौक्तिक कीं जन्मवितो वेजीं।

जादूगार जीवनाचा!  ।। ।।२९।।

 

स्वानुभव हें आद्य आलंबन।

प्रत्युत्तर हें अंगुलि निदर्शन।

साक्षात्कार म्हणिजे स्वसंभ्रम विलोचन।

न, कीं, संशोधन दूरस्थाचा!।। ।।३०।।

 

संध्याकाळी ०८.५६

 

रूतला कंटक काढा हळुवार।

भग्नलें स्वप्न स्पष्टवा साकार।

हरपलें स्वसंकलन, मोडला संसार।

सांवरा स्वसंपूर्णतया!  ।। ।।३१।।

 

आपूर्यमाण झालें आंतर्जीवन।

त्रयोदशलें अंत:समाधिधन।

सहजतया संप्राप्त्लें गंगावतरण।

सहज हा जीवनोद्रेक!  ।। ।।३२।।

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