उन्मनी वाङमय

श्लोक १ ते १०

संध्याकाळी ०६.४२

 

स्वस्ति श्रिये! निष्कले! षोडशांशे।

संवित्तनये, स्फुरत्ते, श्रीविमर्शे।

महाव्योम्नि, महांगुलि, चित्प्रकर्षे।

संकल्प मातर्! नमोsस्तु ते! ।।१।।

 

संध्याकाळी ०६.५०

 

संज्ञक मी आदिष्टलेला ।

चतु:सृष्टींत प्रविष्टलेला ।

संदेश देहीं प्रकटलेला ।

‘दीधीतावधूत’ नाम माझें!  ।। ।।२।।

 

जीव जीव कोशींचा मरकतमणी।

संकल्प भानू विखुरला किरण किरणीं।

शब्दस्पर्शे उगमवीन निर्झरणी।

‘मणि’ तेजाची  ।। ।।३।।

 

संध्याकाळी ०६.५५

 

तेथिंचे रत्नतुषार प्रस्फुरले।

तेथिंचे सुवर्णध्वनि सामगीतले।

तेथिंचे सौरभ पवन व्योमाकारले।

दीधिताचा नित्योत्सव हा  ।। ।।४।।

 

तत्त्व देहास  नका लावूं निकष।

व्योम मूर्तीस नका कल्पूं दिगंश।

रविबिंबा न अर्थवत्ते प्रकाश।

तेजस्तम दृग्निष्ठ  ।। ।।५।।

 

आणाल एक एक जें मापटें।

मोजाल दिक् नवनव्या हस्तपृष्ठें।

शास्त्रविधान हें प्रकटेल थिटें।

निकषातीत सुवर्ण श्री!  ।। ।।६।।

 

प्रमाण प्रमाण होईल निर्माण।

शब्द शब्द पावेल स्तब्धन।

देह देह होईल रजतकण!

कोंदण कीं संविद् रत्नाचें!  ।। ।।७।।

 

फुला फुलास चुंबील श्रीभ्रमरी।

लहरी लहरीस स्पर्शील चंद्रिकेची सरी।

मुक्तेमुक्तेस वेजील मुक्तेश्वरी।

मुक्ती कीं महाजीवनाची!  ।। ।।८।।

 

महाजीवनाच्या सरित् कल्लोलीं।

संविद् भानाच्या सहस्त्रार कमलीं।

सहस्त्र मणिपद्मांच्या तेजोगोली।

समर्पिलें जीवन माझें!  ।। ।।९।।

 

संदेश बुद्बुद् निनादले स्वैर।

चंदेरी पदन्यास फेकिले चौफेर।

उधळिली ऋत् दर्शनांची स्वैर।

जीव जीवाच्या प्रज्ञागर्भीं  ।। ।।१०।।

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